Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म: १९प
शुभरागने पण खरेखर मलिन जाणे छे. पाप भावने तो साधारण लोको मलिन कहे ज छे
परंतु पुण्यभावने तेओ धर्म समजे छे, ते आस्रव होवा छतां तेने धर्म समजे छे ए तेमनी
मूढता छे, अज्ञान छे.
११० जीवने ज्यां सुख लागे तेमां ते प्रवृत्ति करे छे, अने ज्यां दुःख लागे त्यांथी ते निवृत्ति करे छे,
केम के सर्वे जीवो सुखने चाहे छे ने दुःखथी डरे छे. ज्यांसुधी जीव रागमां सुख माने छे
त्यांसुधी ते आस्रवोमां ज प्रवर्ते छे, पण तेनाथी पाछो वळीने स्वभावमां आवतो नथी.
भेदज्ञानवडे ज्ञानी एम जाणे छे के आ शुभ–अशुभ सर्वे आस्रवो दुःखरूप छे ने मारो ज्ञान–
स्वभाव ज सुखरूप छे.–आवुं जाणतो ते आत्मस्वभावमां प्रवृत्ति करे छे ने आस्रवोथी
निवृत्ति करे छे. आ रीते भेदज्ञान ते ज बंधने रोकवानो अने मोक्षनो पामवानो उपाय छे.
१११ जेम स्वच्छ पाणीथी भरेला सरोवरमां उपर जे लीलफूग छे ते मलिन छे ने निर्मळ जळ
तेनाथी जुदुं छे; तेम निर्मळ चैतन्यजळथी भरेला आत्मसरोवरमां उपर जे रागादि
आस्रवोनां गोदडां छे ते लीलफूगनी जेम मलिनपणे अनुभवाय छे, तेनुं वेदन मलिनरूप छे,
ने निर्मळचैतन्यजळ तेनाथी जुदुं छे, ते चैतन्यनुं वेदन निर्मळ–वीतरागी आनंदरूप छे. आ
रीते वेदनवडे पोताना अंतरमां ते बन्नेने भिन्न भिन्न समजीने ज्ञानी जीव, लीलफूग दूर करीने
स्वच्छ जळ पीनारा पुरुषनी जेम, रागथी छूटा पडीने निर्मळ चैतन्यने ज अनुभवे छे.
११२ अहीं आस्रवोने मलिन कह्या तेनी सामे आत्माने ‘भगवान आत्मा’ एम कहीने ‘अति
निर्मळ’ कह्यो. अहा! क््यां आस्रव! ने क््यां परम पवित्र भगवान आत्मा! आस्रवोनो तो
स्वाद मेलो कषायेलो (–कषायवाळो) छे अने भगवान आत्मानो स्वादपरमपवित्र मीठो–
मधुरो (आनंदरूप) छे.–आवो स्वादभेद जाणे ते ज्ञानी आस्रवोना स्वादमां केम जोडाय?
११३ वळी भगवान आत्मा तो स्व–परप्रकाशक जागृत ज्योत छे, अने पुण्य–पापनी लागणीपूर्वक
आस्रवो पोते पोताने के बीजाने नहि जाणनारा होवाथी जडस्वरूप छे, तेओ तो बीजावडे
जणावायोग्य छे.–आ रीते पण ज्ञानस्वरूप आत्मा क्रोधादिथी भिन्न छे.
११४ क्रोधने खबर नथी के ‘हुं क्रोध छुं; तेनाथी जुदुं एवुं ज्ञान ज तेने जाणे छे के ‘आ क्रोध छे’
‘हुं ज्ञान छुं’ एम ज्ञान पोते पोताने पण जाणे छे, अने ‘आ क्रोध छे, ते हुं नथी’ एम ज्ञान
परने पण जाणे छे. ‘हुं क्रोध छुं’–एम मानीने क्रोधादिमां परिणमतुं (–पण तेनाथी जुदुं नहि
रहेतुं) एवुं ज्ञान, पोताने के क्रोधादिने जाणी शकतुं नथी एटले ते आंधळुं ज्ञान छे, अर्थात्
ते ज्ञान नथी पण अज्ञान छे. भेदज्ञानवडे ज्ञान अने क्रोधादिने जुदा जाणतो थको भगवान
आत्मा सदा चेतकपणे ज रहे छे, क्रोधादिपणे थतो नथी.
११प आवुं भेदज्ञान थतां ज जीवने पोताना अंतरमां मुक्ति प्रतिभासे छे, ने बंधनथी ते दूर रहे
छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के अहो! आ भेदज्ञान ज मुक्तिनो परम उपाय छे, तेनाथी ज
बंधन अटकी जाय छे. स्वभाव प्रगट करवानो अने बंधनने अटकाववानो आ एक ज
उपाय छे, बीजो कोई उपाय नथी.
११६ कोई कहे के आमां तो एकलुं ज्ञान आव्युं, पच्चखाण वगेरे कांई न आव्युं? तो तेने कहे छे के
अरे भाई! ‘ज्ञान’ एटले शुं–एनी तने हजी खबर नथी. पच्चखाणनी पण तने खबर नथी,
एटले ज आवो संदेह तने ऊंठे छे. चैतन्यतत्त्वने यथार्थपणे जाणीने तेमां ज्ञान जेटले अंशे ठर्युं
तेटले अंशे खरुं पच्चखाण छे, ते ज्ञान पोते ज पच्चखाणस्वरूप छे केमके ते ज्ञानमां रागादि
परभावोनो त्याग वर्ते छे. यथार्थ ज्ञान विना पच्चखाणनुं स्वरूप अज्ञानी नहि जाणी शके. ते
अज्ञानी तो कंईक अशुभ छोडीने शुभ करे ते शुभने ज पच्चखाण मानशे, परंतु शुभभावरूप
पच्चखाण पण बंधनरूप छे, अने स्वरूपमां ठरतुं ज्ञान ज अबंधरूप छे. रागमां अटकेला जीवो,
रागनो जेमां त्याग छे