गणतरीमां गणवामां आवतो नथी. अल्पकाळमां ज्ञान पोताना स्वरूपमां ठरतां ते अल्पबंध
पण छूटी जशे, ने आत्मा सर्वथा अबंध साक्षात् परमात्मा थई जशे.–आ रीते
चैतन्यस्वरूप आत्माने ओळखीने तेमां ज्ञाननी लीनता ते ज संसारनाशनो अने
परमात्मपदप्राप्तिनो एकमात्र अमोघ उपाय छे.
जाणनार विज्ञानघन हुं छुं. मारो विज्ञानघन स्वभाव विभावोथी जुदो ज छे.–आम
जाणनार भेदज्ञानी जीव विभावोथी पाछो वळीने स्वभावना श्रद्धा–ज्ञान–रमणतामां प्रवर्ते
छे, एटले के मोक्षमार्गमां वर्ते छे, तेथी तेने बंधन थतुं नथी.
श्रद्धा–ज्ञान–गृहस्थपणामां थई शके छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! ज्ञानघन आत्मानी श्रद्धा
थतां अनंता कर्मोनी निर्जरा थई जाय छे; अने पछी तेमां स्थिरता थतां केवळज्ञान थाय छे;
आवो भेदज्ञाननो महिमा छे.
तो कोई ज्ञानीनुं वचन होय ज नहि.
नहि, पुण्यपापना भाव ते कांई स्वभाव साथे जोडाणनुं कार्य नथी, ते तो कर्म साथे जोडाणनुं
कार्य छे, अने दुःखनुं कारण छे.
निराकुळस्वभावी छे, आनंदस्वरूपी छे, तेना अवलंबनथी आनंदनो ज अनुभव थाय छे, ते
दुःखनुं कारण नथी पण सुखनुं ज कारण छे, अने तेना सुखकार्यने कर्म साथे जरा पण संबंध
नथी. रागादि आस्रवो ते कर्म साथे संबंधवाळा छे.–आ रीते आत्मा अने आस्रवोने
जुदापणुं छे. आवुं जुदापणुं जाणीने हे जीव! तुं रागादिथी निवृत्त था....ने अंतर्मुख थईने
तारा ज्ञानस्वभावमां ज प्रवृत्ति कर. आम करवाथी तारा भवबंधन तूटी जशे, ने तने तारा
सुखनो अनुभव थशे.