Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म: १९प
(“आत्मधर्म” नी अध्यात्मरस भरपूर सहेली चालु लेखमाळा)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर परमपूज्य सद्गुरुदेव
श्री कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
***
(वीर सं. २४८२, जेठ वद १२: गाथा ४०मी चालु)
जेने चैतन्यना आनंदनो अनुभव नथी तेने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि थाय छे; अने चैतन्यना
आनंदनुं भान थाय पछी पण जेने तेना अनुभवमां लीनता नथी तेने ज बाह्य पदार्थो संबंधी राग–
द्वेष थाय छे. उपयोगने अंतर्मुख करीने जेने पोताना अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवमां लीनता वर्ते छे
तेने बाह्य पदार्थो प्रत्ये वलण ज नथी एटले तेने तो कोई पदार्थ संबंधी राग–द्वेष थता नथी.
रागद्वेष टाळवानो उपाय शुं?
के चैतन्य स्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज राग–द्वेषने टाळवानो उपाय छे. आ सिवाय बाह्य
पदार्थो तरफ वलण राखीने रागद्वेष टाळवा मांगे तो ते कदी टळी शके नहीं. पहेलां तो देहादिथी भिन्न ने
रागादिथी पण परमार्थे भिन्न एवा चिदानंदस्वरूपनुं भान कर्युं होय, तेने ज तेमां उपयोगनी लीनता
थाय. परंतु जे जीव देहादिनी क्रियाने पोतानी मानतो होय, के रागथी लाभ मानतो होय तेनो उपयोग
ते देहथी ने रागथी पाछो खसीने चैतन्यमां वळे ज क््यांथी? ज्यां लाभ माने त्यांथी पोताना उपयोगने
केम खसेडे?–न ज खसेडे. माटे उपयोगने पोताना चिदानंद स्वरूपमां एकाग्र करवा ईच्छनारे प्रथम तो
पोताना स्वरूपने देहादिथी ने रागादिथी अत्यंत भिन्न जाणवुं जोईए. जगतना कोई पण बाह्य
विषयोमां के ते तरफना रागमां क््यांय स्वप्नेय मारुं सुख के शांति नथी, अनंतकाळ बहारना भावो
कर्या पण मने किंचित् सुख न मळ्‌युं. जगतमां क््यांय पण मारुं सुख होय तो ते मारा निजस्वरूपमां ज
छे, बीजे क््यांय नथी. माटे हवे हुं बहारनो उपयोग छोडीने, मारा स्वरूपमां ज उपयोगने जोडुं छुं.–
आवा द्रढ निर्णयपूर्वक धर्मी जीव वारंवार पोताना उपयोगने अंर्तस्वरूपमां जोडे छे.
आ रीते उपयोगने अंर्तस्वरूपमां जोडवो ते ज जिन–आज्ञा छे, ते ज आराधना छे, ते ज
समाधि छे, ते ज सुख छे ने ते ज मोक्षनो पंथ छे. ।। ४०।।
(वीर सं. २४८२ जेठ वद तेरस: समाधिशतक गा. ४१)
चैतन्यस्वभावनी महत्ता अने बाह्य ईंद्रियविषयोनी तुच्छता जाणीने, पोताना उपयोगने
वारंवार चैतन्य भावनामां जोडवो; एम करवाथी पर प्रत्येनो प्रेम नाश