Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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पोष: २४८६ : १३ :
थाय छे ने वीतरागी आनंदनो अनुभव थाय छे,–एम पूर्व गाथामां कह्युं. ए ज वातने द्रढ करतां हवे
कहे छे के आत्माना विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं दुःख आत्मानी भावनाथी ज नाश थाय छे–जेओ
आत्मज्ञाननो उद्यम नथी करता तेओ घोर तप करे तोपण निर्वाण पामता नथी.–
आत्मविभ्रमजं दुखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति।
नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वाति परमं तपः।।४१।।
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेने भूलीने देहादिकमां आत्मबुद्धिरूप जे विभ्रम छे ते ज दुःखनुं
मूळ छे. ते आत्मा–विभ्रमथी थयेलुं दुःख आत्मज्ञानवडे ज दूर थाय छे. ‘देहादिकथी भिन्न
ज्ञानदर्शनस्वरूप ज हुं छुं, बीजुं कांई मारुं नथी.’ एवा आत्मज्ञान वगर दुःख मटवानो बीजो कोई
उपाय नथी. आवा आत्मज्ञान वगर घोर तप करे तोपण जीव निर्वाणपदने पामतो नथी.
जेओ आत्मज्ञाननो तो प्रयत्न करता नथी ने व्रततपनो ज उद्यम करे छे तेओ मात्र कलेश ज
पामे छे, निर्वाणने पामता नथी. तेने जे व्रत–तप छे ते आत्मानी भावनाथी नथी पण रागनी अने
विषयोनी ज भावनाथी छे. भले सीधी रीते विषयोनी ईच्छारूप पापभावना तो न होय, परंतु
अंतरमां विषयातीत चैतन्यनुं वेदन नथी करतो ते रागना ज वेदनमां अटक्यो छे, एटले तेना
अभिप्रायमां रागनी ने रागना फळरूप ईंद्रियविषयोनी भावना पडी ज छे. आत्माना अतीन्द्रिय
आनंदना स्वाद वगर विषयोनी भावना खरेखर तूटे ज नहि.
जेओ आत्मज्ञाननो प्रयत्न करे छे तेओ ज दुःखथी छूटे छे. जेओ आत्मज्ञाननो प्रयत्न नथी
करता तेओ दुःखथी छूटता नथी.
जुओ, आ पूज्यपादस्वामीए तत्त्वार्थसूत्र उपर ‘सर्वार्थसिद्धि’–नामनी महान टीका रची छे;
तेओ कहे छे के आत्मानो विभ्रम ते ज दुःखनुं कारण छे; कर्मना कारणे दुःख छे एम न कह्युं, पण
आत्मज्ञाननो प्रयत्न पोते नथी करतो तेथी ज दुःख छे. ‘कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई’
पोतानी भूलथी ज आत्मा दुःखी थाय छे, कर्म बिचारुं शुं करे? पोते ज आत्मज्ञाननो यत्न नथी करतो
तेथी दुःख छे, छतां अज्ञानी कर्मनो वांक काढे छे के कर्म दुःख आपे छे,–पोतानो वांक बीजा उपर ढोळे
छे–ते अनीति छे, ते जैननीतिने जाणतो नथी. जो जिनधर्मने जाणे तो आवी अनीति संभवे नहीं.
मोक्षमार्गप्रकाशकमां कहे छे के: “तत्त्वनिर्णय करवामां उपयोग लगावतो नथी ए जीवनो ज दोष छे......
तत्त्वनिर्णय करवामां कांई कर्मनो तो दोष छे नहि पण तारो ज दोष छे.....तुं पोते तो महंत रहेवा
ईच्छे छे अने पोतानो दोष कर्मादिकमां लगावे छे. पण जिनआज्ञा माने तो आवी अनीति संभवे
नहि”.....एटले के पोतानो दोष जे कर्म उपर ढोळे छे ते जीव जिनाज्ञाथी बहार छे.
आत्मस्वरूपना ज्ञान वगर तेमां एकाग्रतारूप तप होय ज नहि. आत्मज्ञान वगर हठथी व्रत–तप
करवा मांगे तेमां एकलुं कष्ट छे, भले शुभरागथी करे तो पण तेमां केवळ कष्ट छे, आत्मानी शांति तेमां
जरा पण नथी. दुःखनुं कारण तो आत्म–विभ्रम छे, ते भ्रमणा टाळ्‌या वगर दुःख टळे ज नहि. आनंदनुं
वेदन ते ज दुःखना अभावनी रीत छे. जे तपमां आत्माना आनंदनुं वेदन नथी तेमां कष्ट ज छे.
आत्मज्ञान वगर रागादिक खरेखर घटे ज नहि. पहेलां आत्मज्ञान करे पछी तेमां लीनतावडे
रागादिक घटतां व्रत–तप ने मुनिदशा थाय छे. पं. टोडरमल्लजी पण कहे छे के: जिनमतमां तो एवी
परिपाटी छे के पहेलां सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय. हवे सम्यक्त्व तो स्व–परनुं श्रद्धान थतां थाय छे
तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोगनो अभ्यास करतां थाय छे, माटे पहेलां द्रव्यानुयोग–अनुसार श्रद्धान करी
सम्यग्द्रष्टि थाय अने पछी चरणानुयोग अनुसार व्रतादिक धारण करी व्रती थाय.
जीवने पोतानुं वास्तविक स्वरूप ज्यांसुधी लक्षमां न आवे त्यांसुधी परभावोमांथी आत्मबुद्धि
छूटे नहि; एटले रागादि परभावना वेदनमां अटकीने ‘आटलो ज हुं’ , अथवा देहादिनी क्रिया ते ज
हुं,–एवी आत्मभ्रमणाथी परभावोमां ज लीन थईने जीव महादुःख वेदी रह्यो छे, आ आत्मभ्रमणा ज
महादुःखनुं मूळियुं छे ए वात ज्यांसुधी ख्यालमां न आवे त्यांसुधी आत्मज्ञाननो साचो पुरुषार्थ जागे
नहीं. अने आत्मज्ञान वगर साची शांति थाय नहि.