Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म: १९प
भाई! तारे आत्मानी शांति जोईती होय....अतीन्द्रिय आनंद जोईतो होय ने दुःखने दुर करवुं
होय तो तारा आत्मज्ञाननो उद्यम कर.....आत्मज्ञान ते एक ज शांतिनो ने आनंदनो उपाय छे, ते ज
उपायथी दुःख टळे छे; बीजा कोई उपायथी दुःख टळतुं नथी. छह ढाळामां कह्युं छे के–
“ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारण.
यह परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण.”
आत्मज्ञान विना बीजा कोई उपाये सुख थतुं नथी. ए ज वात छह ढाळामां कहे छे के–
‘मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक ऊपजायो,
पै निजआत्मज्ञान विन सुख लेश न पायो,’
आत्मज्ञान वगर एकला शुभरागथी पंचमहाव्रत पाळीने ठेठ नवमी गै्रवेयक सुधी देवलोकमां
गयो, तोपण त्यां जराय सुख न पाम्यो, मात्र दुःख ज पाम्यो. अज्ञानी जीवनी क्रिया संसारने माटे
सफळ छे, ने मोक्षने माटे निष्फळ छे; ने ज्ञानीनी जे धर्मक्रिया छे ते संसारने माटे निष्फळ छे ने मोक्षने
माटे सफळ छे. जेने अंतरमां स्वसन्मुख प्रयत्न नथी ते परसन्मुख जेटलो प्रयत्न करे तेनुं फळ दुःख
अने संसार ज छे. आत्मस्वभावमां स्वसन्मुख प्रयत्नथी ज सुख अने मुक्ति थाय छे; माटे
आत्मज्ञानना उद्यमनो उपदेश छे.
।। ४१।।
बहिरात्मा शुं ईच्छे छे ने धर्मात्मा शुं ईच्छे छे–ते हवे कहेशे.
अंतरमां चैतन्यना अतीन्द्रिय
आनंदने चूकीने बाह्य
ईन्द्रियविषयोमां मुर्छाई
गयेला बहिरात्माओ
निरंतर दुःखी छे.
अने
मारुं सुख मारा आत्मामां ज छे,
बाह्य ईन्द्रियविषयोमां
मारुं सुख नथी–एवी अंर्तप्रतीति करीने,
धर्मात्मा अंतर्मुख थईने
आत्माना अतीन्द्रियसुखनो
स्वाद ल्ये छे..........ते निरंतर सुखी छे.