चैतन्यस्वभाव शांत–अनाकुळ स्वादथी भरेलो छे केमके तेनी निकटतामां
पण शांति भासे छे, अने ते स्वभावमां वळतां शांत–अनाकुळ स्वादनुं
भिन्नतानो निर्णय थाय छे.
थईने चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ल्ये छे. आ रीते भेदज्ञान
थतां ज आत्मा संसारथी निवृत्त थाय छे ने मोक्ष तरफ परिणमतो जाय
छे.
(१०) आचार्यभगवान कहे छे के प्रभु! तारी मुक्तिनो मार्ग तारा
आत्मामांथी शरू थाय छे, बहारथी तारी मुक्तिनो मार्ग मळे तेम नथी;
माटे अंर्तस्वभावने लक्षमां लईने तेनी सन्मुख था. मुक्तिनो मार्ग
अंतर्मुख छे.
‘तुं मूरख छो.........गांडो छो!’ आम क््यारेक मृदुताभरेला शब्दोथी शिखामण
आपे क््यारेक कडक शब्दोमां ठपको आपे, परंतु बंने वखते माताना हृदयमां
पुत्रना हितनो ज अभिप्राय छे एटले तेनी शिखामणमां कोमळता ज भरेली
छे: तेम धर्मात्मा संतो बाळक जेवा अबुध शिष्योने समजाववा माटे उपदेशमां
क््यारेक मृदुताथी एम कहे के हे भाई! तारो आत्मा सिद्ध जेवो छे तेने तुं
तारा आत्माने हवे तो ओळख! आ मूढता तारे क््यांसुधी राखवी छे? हवे तो
ते छोड!’ आ रीते, कोईवार मुदृ संबोधनथी अने कोईवार कडक संबोधनथी
उपदेश आपे, –परंतु बंने प्रकारना उपदेश वखते तेमना हृदयमां शिष्यना
हितनो ज अभिप्राय छे एटले तेमना हृदयमां कोमळता ज छे..........वात्सल्य
ज छे.
प्रसिद्ध थनारुं पू. गुरुदेवनुं प्रवचन वांचो.