Atmadharma magazine - Ank 196
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : १९६
(वीर सं. २४८२ जेठ वद १४)
आ आत्मा देहथी भिन्न अतीन्द्रिय चैतन्यमूर्ति छे, ते अंतरनो विषय छे, ने तेमां ज सुख छे.
जेणे आवा अंतरना विषयने न जाण्यो तेने बाह्यविषयोमां आत्मबुद्धि थई; आ देह ते ज आत्मा छे,
ईन्द्रियना विषयोमां सुख छे–एवी मिथ्याबुद्धि थई ते जीव उत्तम शरीरने अने स्वर्ग वगेरे
विषयभोगोने ज वांछे छे. सीधी रीते जे विषयभोगोनी ईच्छा करे तेने तो पाप छे, तेने कांई उत्तम
स्वर्ग मळतुं नथी. अज्ञानी द्रव्यलिंगी थईने व्रत–तप करे छे तेने सीधी रीते तो विषयोनी अभिलाषा
नथी, पण तेना अभिप्रायमां चैतन्य तरफनो झूकाव नथी ने राग तरफनो ज झूकाव छे, रागनी ज
भावना छे तेथी ते रागना फळरूप विषयोनी भावना पण तेना अभिप्रायमां पडी ज छे. रागनी
भावनारूप मिथ्यात्वमां अनंता विषयभोगोनुं मूळियुं ऊभुं छे, माटे अज्ञानी जे व्रतादि सेवे छे ते
भोगहेतु ज छे–एम कह्युं छे.
ज्ञानी तो अतीन्द्रिय चैतन्यतत्त्वनी ज भावना करे छे. शुभ–अशुभ होय भले पण तेने तेनी
भावना नथी. अने ज्यां रागनी भावना नथी त्यां रागना फळरूप विषयोनी भावना केम होय?
वीतरागी चैतन्यने जाण्या वगर रागनी भावना टळे नहि. ने ज्यां रागनी भावना टळी नथी त्यां
रागना फळरूप विषयोनी भावना पण टळी नथी.
मारो आत्मा ज ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे, बाह्य विषयो वगर ज मारा आत्मामां आनंद छे–
एम अतीन्द्रिय आत्मानो स्पर्श–रुचि–अनुभव जेने नथी ते जीवने ईंद्रियविषयोनो ज स्पर्श–रुचि–
अनुभव छे. जुओ, आ अंतरना वेदन उपरथी ज्ञानी–अज्ञानीनुं माप काढ्युं छे. जेने अतीन्द्रिय
आनंदनुं वेदन नथी तेने ईन्द्रियविषयोनुं ज वेदन छे. जेने अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन छे तेने ज
ईंद्रियविषयोनी रुचि छूटी छे. एक तरफ अतीन्द्रिय आत्मानो विषय, ने बीजी तरफ ईंद्रिय विषयो,–ते
बंनेनी रुचि एकसाथे न होई शके. जेने एकनी रुचि छे तेने बीजानी रुचि नथी. रागनुं फळ
अतीन्द्रिय आनंद नथी पण ईन्द्रियविषयो ज छे, तेथी जेने रागनी रुचि छे तेने ईंद्रियविषयोनी ज
रुचि छे, तेने अतीन्द्रिय आत्मानी रुचि नथी.
भगवाने कहेलां व्यवहार व्रत–तप पाळतो होवा छतां अज्ञानीने केम मुक्ति थती नथी?–तेनो
खुलासो करतां आचार्यदेव कहे छे के ते अज्ञानी जीव रागनी ने रागना फळरूप भोगनी ज रुचिथी
व्रतादि करे छे, तेथी ते मोक्षने पामतो नथी; तेने रागथी पार ने ईन्द्रिविषयोथी पार
चिदानंदस्वभावनी रुचि–प्रतीति–श्रद्धा नथी; तेना वेदनमां ते रागने ज वेदे छे. रागरहित
आत्मस्वभावने ते वेदतो नथी, तेथी तेने कर्मक्षय थतो नथी.
ज्ञानी तो चैतन्य स्वभावनी भावनाथी रागमांथी छूटवा मांगे छे, ने देहादि विषयोथी पण
छूटवा चाहे छे. चैतन्यना आनंदनुं वेदन जेम जेम वधतुं जाय छे तेम तेम राग अने विषयो छूटता
जाय छे. जेने रागमां ने देहमां आत्मबुद्धि होय तेने राग के देहथी छूटवानी खरी भावना कयांथी
होय? चैतन्यना अतीन्द्रियआनंदनी अस्ति विना ईंद्रियविषयोनी नास्ति कयांथी थाय?
कषायनी मंदता करीने, शुभरागथी कंईक व्रत–तप करे, ते रागनी मीठासथी मूढ अज्ञानीने एम थई
जाय छे के में घणुं कर्युं...पंचमहाव्रत पाळे त्यां अज्ञानीने एम थई जाय छे के में घणो मोक्षमार्ग सेव्यो...हुं
धर्ममां घणो आगळ वधी गयो. पण ते खरेखर मोक्षमार्गमां आव्यो ज नथी, संसारमार्गमां ज ऊभो छे.
अने कोई ज्ञानी धर्मात्मा गृहस्थपणामां होय, तेने अंतरमां विषयोथी ने रागथी पार चैतन्यतत्त्वना
आनंदनुं वेदन थई गयुं छे; तेने व्रत–तप न होवा छतां अंतरमां अपूर्वद्रष्टिना बळे अनंत संसार कापी
नांख्यो छे, ने मोक्षना आराधक थई गया छे. त्यां अज्ञानी तेनी अपूर्व अंर्तद्रष्टिना अचिंत्य महिमाने तो
ओळखतो नथी अने मूढताथी माने छे के आने तो कांई व्रत–तप नथी ने अमे तो व्रत–तप पाळीए छीए,
माटे अमे तो एनाथी घणा आगळ वधी गया!–एवा मूढने अहीं