Atmadharma magazine - Ank 196
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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महा : २४८६ : १३ :
(१२६) जे भेदज्ञान छे ते क्रोधादिथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावी छे; एक होय त्यां बीजुं न
होय एम बने ज नहीं. ज्ञानमां क्रोधादि साथे भिन्नपणानी (–भेदज्ञाननी) ‘अस्ति’ थई त्यां क्रोधादि
साथेना एकपणानी ‘नास्ति’ जरूर थाय ज छे.–आवी अस्ति–नास्ति वगर भेदज्ञाननी सिद्धि थती ज
नथी.
(१२७) अज्ञानदशा वखते उपयोग रागादिमां एकाकार वर्ततो हतो, भेदज्ञानवडे तेनाथी जुदो
पडीने उपयोग पोताना स्वभावमां एकाकार थयो त्यां ते उपयोग रागादि साथे पण एकाकार रह्या करे
एम कदी बनी शकतुं नथी. एक उपयोगने, स्वभाव साथे अने राग साथे एम बंने साथे कदी एकता
रही शकती नथी. स्वभाव साथे एकता थतां राग साथे भिन्नता थई जाय छे; जो रागथी भिन्नता न
थाय तो स्वभाव साथे एकता थती नथी. आ रीते जे भेदज्ञान छे ते नियमथी रागादिथी निवर्तेलुं छे.
अने ज्यां रागादिथी निवृत्ति छे त्यां बंधन पण थतुं नथी. आ रीते सिद्ध थयुं के ज्ञानमात्रथी बंधन
अटकी जाय छे.
(१२८) जुओ भाई! आ जे कहेवायो ते ज बंधनथी छूटवानो मार्ग छे, ए ज मोक्षनो सत्य
पंथ छे. सत्यने पंथे सत्य मळे परंतु असत्यने पंथे सत्य न मळे. आ कांई ठेठ केवळज्ञानी थाय त्यारनी
वात नथी, आ तो हजी जेणे धर्मनी शरूआत करी छे एवा अव्रती–सम्यग्द्रष्टिनी वात छे, गृहस्थदशामां
रह्या छतां केवुं ज्ञान करवाथी धर्मनी शरूआत थाय–तेनी आ वात छे. जीवोए अनादिकाळथी
पराङ्मुखद्रष्टि राखीने बधुं कर्युं, शास्त्रनो अभ्यास कर्यो, व्रत कर्यां, तप कर्यां, अरे! दिगंबरमुनि पण
अनंतवार थयो, वनमां रह्यो, एकांतमां बेठो;–आ बधुंय कर्युं परंतु रागथी जराके य जुदो न पडयो,
रागमां ज वर्तीने बधुं कर्युं अने एम मान्युं के आनाथी हवे मारो मोक्ष थई जशे, हुं आ मोक्षनो ज
उपाय करुं छुं.–आवी ऊंधी मान्यताने लीधे रागथी जुदो पडीने स्वभावमां आव्यो नहीं, तेथी तेने
जराय कल्याण थयुं नहि, बंधनथी जराय छूटकारो थयो नहि. बंधनथी छूटवानी ने मोक्षदशा पामवानी
जे रीत अने जे विधि छे ते प्रमाणे जाणे–माने ने वर्ते तो मोक्षदशा प्रगटे.
(१२९) आ वात एवी नथी के न थई शके. आ वात अपूर्व होवा छतां सुपात्र थईने जे करवा
मांगे तेनाथी जरूर थई शके एवी छे. एक पण व्रत–पच्चखाण न होवा छतां आत्मानी प्रतीति–ज्ञान–
अनुभव थई शके छे. केवी प्रतीति?–के जेवी गणधरोने, केवळज्ञानीने अने सिद्धभगवंतोने होय तेवी.–
आवी प्रतीत बेनो–भाईओ बधाने थई शके, अरे! आठ वर्षनी बालिकाने पण थई शके. अत्यारे
महाविदेह क्षेत्रमां आठ आठ वर्षनी बालिकाओ अने आठ आठ वर्षना राजकुंवरो आवी आत्मप्रतीति
करी रह्या छे. वाह! आठ वर्षनो बाळक होय...हजी तो बाळपणाना खेल खेलतो होय...पण अंदर जुओ
तो गणधर जेवो विवेक आत्मामां वर्ततो होय.–आवी सम्यग्द्रष्टि स्तुति करतां कविराज पं.
बनारसीदासजी कहे छे के–
जाके घट प्रगट विवेक गणधरकोसो, हिरदे हरख महा मोहको हरतु है;
सांचा सुख मानें निज महिमा अडोल जानें, आपु ही में आपनो स्वभाव ले धरतु है।
जैसे जल कर्दम कुतकफल भिन्न करे, तैसे जीव अजीव विलछन करतु है;
आतमशकति साधे ज्ञानको उदौ आराधे, सोइ समकिती भवसागर तरतु है।
जुओ, आ भेदज्ञाननो महिमा! भेदज्ञानी जीव ज्ञानसागरमां मग्न थतो थको भवसागरने तरे छे.
(१३०) अज्ञान अवस्थामां चैतन्यने भूलीने जेवा राग–द्वेष करतो तेवा ने तेवा ज्ञानअवस्था
थया पछी थता नथी, घणो फेर पडी जाय छे, आसक्ति घणी घटी जाय छे. कोई कहे के सम्यग्ज्ञान पोताने
थयुं तेनी खबर पोताने