साथेना एकपणानी ‘नास्ति’ जरूर थाय ज छे.–आवी अस्ति–नास्ति वगर भेदज्ञाननी सिद्धि थती ज
नथी.
एम कदी बनी शकतुं नथी. एक उपयोगने, स्वभाव साथे अने राग साथे एम बंने साथे कदी एकता
रही शकती नथी. स्वभाव साथे एकता थतां राग साथे भिन्नता थई जाय छे; जो रागथी भिन्नता न
थाय तो स्वभाव साथे एकता थती नथी. आ रीते जे भेदज्ञान छे ते नियमथी रागादिथी निवर्तेलुं छे.
अने ज्यां रागादिथी निवृत्ति छे त्यां बंधन पण थतुं नथी. आ रीते सिद्ध थयुं के ज्ञानमात्रथी बंधन
अटकी जाय छे.
रह्या छतां केवुं ज्ञान करवाथी धर्मनी शरूआत थाय–तेनी आ वात छे. जीवोए अनादिकाळथी
पराङ्मुखद्रष्टि राखीने बधुं कर्युं, शास्त्रनो अभ्यास कर्यो, व्रत कर्यां, तप कर्यां, अरे! दिगंबरमुनि पण
अनंतवार थयो, वनमां रह्यो, एकांतमां बेठो;–आ बधुंय कर्युं परंतु रागथी जराके य जुदो न पडयो,
रागमां ज वर्तीने बधुं कर्युं अने एम मान्युं के आनाथी हवे मारो मोक्ष थई जशे, हुं आ मोक्षनो ज
उपाय करुं छुं.–आवी ऊंधी मान्यताने लीधे रागथी जुदो पडीने स्वभावमां आव्यो नहीं, तेथी तेने
जराय कल्याण थयुं नहि, बंधनथी जराय छूटकारो थयो नहि. बंधनथी छूटवानी ने मोक्षदशा पामवानी
जे रीत अने जे विधि छे ते प्रमाणे जाणे–माने ने वर्ते तो मोक्षदशा प्रगटे.
अनुभव थई शके छे. केवी प्रतीति?–के जेवी गणधरोने, केवळज्ञानीने अने सिद्धभगवंतोने होय तेवी.–
आवी प्रतीत बेनो–भाईओ बधाने थई शके, अरे! आठ वर्षनी बालिकाने पण थई शके. अत्यारे
महाविदेह क्षेत्रमां आठ आठ वर्षनी बालिकाओ अने आठ आठ वर्षना राजकुंवरो आवी आत्मप्रतीति
करी रह्या छे. वाह! आठ वर्षनो बाळक होय...हजी तो बाळपणाना खेल खेलतो होय...पण अंदर जुओ
तो गणधर जेवो विवेक आत्मामां वर्ततो होय.–आवी सम्यग्द्रष्टि स्तुति करतां कविराज पं.
बनारसीदासजी कहे छे के–
सांचा सुख मानें निज महिमा अडोल जानें, आपु ही में आपनो स्वभाव ले धरतु है।
जैसे जल कर्दम कुतकफल भिन्न करे, तैसे जीव अजीव विलछन करतु है;
आतमशकति साधे ज्ञानको उदौ आराधे, सोइ समकिती भवसागर तरतु है।
(१३०) अज्ञान अवस्थामां चैतन्यने भूलीने जेवा राग–द्वेष करतो तेवा ने तेवा ज्ञानअवस्था
थयुं तेनी खबर पोताने