भोजन करतां खबर पडे छे के मारी क्षुधा शांत थई, जेम तृषातूरने जळपान करतां खबर पडे छे के मारी
तृषा शांत थई, तेमां बीजाने पूछवुं नथी पडतुं; तेम सम्यग्ज्ञान थतां अपूर्व आत्मशांतिनुं वेदन थाय छे
तेनी पोताने जरूर खबर पडे छे के मारी आकुळता शांत थई, मने निराकुळ स्वाभाविक शांतिनुं वेदन
थयुं. मारा ज्ञाननी दिशा पलटी. सम्यग्ज्ञान अने शांतिनुं वेदन ए तो पोताना घरनी चीज छे, एटले ते
पोताथी छानी रहे ज नहीं.
सज्जन तरफ वलण थाय छे ने दुश्मन साथेनो संबंध ते छोडी दे छे. तेम सत्स्वभावी आत्मा अने
विरुद्धस्वभावी आस्रवो–ए बंनेनी भिन्नतानुं भान थतां ज धर्मात्मा सत्पुरुषने आत्मस्वभाव तरफ
वलण थाय छे अने आस्रवो साथेनो संबंध ते छोडी दे छे.
तो रागने राग तरीके जाणीने छोडे छे, ने बीजो तेने पोतानो मानीने पकडे छे. जेम सर्पने सर्प तरीके
जाणीने हाथमां ल्ये, अने सर्पने दोरडी समजीने पकडे, ते बंनेमां फेर छे. सर्पने दोरडी समजीने जे पकडे
छे ते तेनाथी बचवानो उपाय राखी शकशे नहि. घोडियामां सुतेला बाळक उपर फेण मांडीने सर्प डोलतो
होय, अने ज्यां खबर पडे के अरे, आ तो सर्प!–त्यां तरत ज तेने मोढा पासेथी एवी रीते पकडे छे के
ते करडी शके नहीं; तेमज हाथने भरडो न लई शके एवी चालाकीथी पकडे छे. तेम रागने आस्रव तरीके
नहि ओळखनार जीव, तेने आत्माथी भिन्न नहि जाणतो थको तेमां ज वर्ते छे एटले ते तो आस्रवोना
डंसथी पोताना आत्मानी रक्षा करी शकतो नथी. परंतु, हुं तो ज्ञाताद्रष्टा आत्मा छुं ने आ क्रोधादि छे ते
हुं नथी–आवा भेदज्ञानवडे ज्यां क्रोधादिने क्रोधादिरूपे ओळखी लीधा त्यां धर्मात्मा पोताना ज्ञाननी
चालाकीवडे ते क्रोधादिने पोताथी जुदा ने जुदा राखे छे, एटले ते क्रोधादि भावो तेनी सम्यक्श्रद्धा के
सम्यग्ज्ञानने भरडो लई शकता नथी; क्रोधादि वखते तेनां श्रद्धा–ज्ञान जागृत ने जागृत रहे छे, ने ते
क्रोधादिने आत्माना स्वरूपमां नहि प्रवेशवा देता थका तेनाथी आत्मानी रक्षा करे छे. अज्ञानीने तो
मिथ्याबुद्धिपूर्वकना राग–द्वेष होवाथी ते तेना श्रद्धा–ज्ञानने करडी खाय छे, ते पोताना श्रद्धा–ज्ञानने
राग–द्वेषथी जुदा राखीने बचावी शकतो नथी.
केवुं! आत्मा अने रागादिनुं भेदज्ञान थाय के तरत ज बंधन अटकी जाय–ए कई रीते?’ तेना उत्तरमां
आचार्यदेवे भेदज्ञाननुं स्वरूप स्पष्ट करीने समजाव्युं के–जो भाई! तुं विचार कर के जे ज्ञान छे ते
रागमां ज प्रवर्ते छे के रागथी छूटुं पडीने ज्ञानस्वभावमां प्रवर्ते छे? जो रागमां ज प्रवर्ततुं होय तो ते
ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे–एम तुं जाण; अने जो ते ज्ञान रागथी छूटुं पडीने ज्ञानस्वभावमां वर्ते
छे,–तो ज्ञानमां वर्ततां तेने बंधन केम थाय? न ज थाय.–माटे ज्ञानथी ज बंधननो निरोध सिद्ध थयो.–
कया ज्ञानथी? के स्वभाव तरफ झूकेला ज्ञानथी. आ रीते भेदज्ञाननो अने सम्यग्दर्शननो अचिंत्य
महिमा तुं समज.