Atmadharma magazine - Ank 196
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : १९६
केम पडे?–जरूर पडे. जेम गरीबने लक्ष्मी मळतां खबर पडे छे के हुं लक्ष्मीवान थयो, जेम क्षुधातूरने
भोजन करतां खबर पडे छे के मारी क्षुधा शांत थई, जेम तृषातूरने जळपान करतां खबर पडे छे के मारी
तृषा शांत थई, तेमां बीजाने पूछवुं नथी पडतुं; तेम सम्यग्ज्ञान थतां अपूर्व आत्मशांतिनुं वेदन थाय छे
तेनी पोताने जरूर खबर पडे छे के मारी आकुळता शांत थई, मने निराकुळ स्वाभाविक शांतिनुं वेदन
थयुं. मारा ज्ञाननी दिशा पलटी. सम्यग्ज्ञान अने शांतिनुं वेदन ए तो पोताना घरनी चीज छे, एटले ते
पोताथी छानी रहे ज नहीं.
(१३१) भेदज्ञान थतां जीवने चैतन्यस्वभाव तो पोतानो परम मित्र भासे छे ने क्रोधादि
आस्रवो पोताना दुश्मन जेवा लागे छे. जेम सज्जन अने दुश्मन ते बन्नेनी खबर पडतां ज सत्पुरुषोने
सज्जन तरफ वलण थाय छे ने दुश्मन साथेनो संबंध ते छोडी दे छे. तेम सत्स्वभावी आत्मा अने
विरुद्धस्वभावी आस्रवो–ए बंनेनी भिन्नतानुं भान थतां ज धर्मात्मा सत्पुरुषने आत्मस्वभाव तरफ
वलण थाय छे अने आस्रवो साथेनो संबंध ते छोडी दे छे.
(१३२) अल्प रागादि थता होय तेने ज्ञानमां रागादि तरीके जाणी लेवा ते तो ज्ञाननुं कार्य छे,
परंतु रागादिने हितरूप जाणीने तेमां ज वर्तवुं ते अज्ञाननुं कार्य छे.–आ रीते बंनेमां मोटो फेर छे. एक
तो रागने राग तरीके जाणीने छोडे छे, ने बीजो तेने पोतानो मानीने पकडे छे. जेम सर्पने सर्प तरीके
जाणीने हाथमां ल्ये, अने सर्पने दोरडी समजीने पकडे, ते बंनेमां फेर छे. सर्पने दोरडी समजीने जे पकडे
छे ते तेनाथी बचवानो उपाय राखी शकशे नहि. घोडियामां सुतेला बाळक उपर फेण मांडीने सर्प डोलतो
होय, अने ज्यां खबर पडे के अरे, आ तो सर्प!–त्यां तरत ज तेने मोढा पासेथी एवी रीते पकडे छे के
ते करडी शके नहीं; तेमज हाथने भरडो न लई शके एवी चालाकीथी पकडे छे. तेम रागने आस्रव तरीके
नहि ओळखनार जीव, तेने आत्माथी भिन्न नहि जाणतो थको तेमां ज वर्ते छे एटले ते तो आस्रवोना
डंसथी पोताना आत्मानी रक्षा करी शकतो नथी. परंतु, हुं तो ज्ञाताद्रष्टा आत्मा छुं ने आ क्रोधादि छे ते
हुं नथी–आवा भेदज्ञानवडे ज्यां क्रोधादिने क्रोधादिरूपे ओळखी लीधा त्यां धर्मात्मा पोताना ज्ञाननी
चालाकीवडे ते क्रोधादिने पोताथी जुदा ने जुदा राखे छे, एटले ते क्रोधादि भावो तेनी सम्यक्श्रद्धा के
सम्यग्ज्ञानने भरडो लई शकता नथी; क्रोधादि वखते तेनां श्रद्धा–ज्ञान जागृत ने जागृत रहे छे, ने ते
क्रोधादिने आत्माना स्वरूपमां नहि प्रवेशवा देता थका तेनाथी आत्मानी रक्षा करे छे. अज्ञानीने तो
मिथ्याबुद्धिपूर्वकना राग–द्वेष होवाथी ते तेना श्रद्धा–ज्ञानने करडी खाय छे, ते पोताना श्रद्धा–ज्ञानने
राग–द्वेषथी जुदा राखीने बचावी शकतो नथी.
(१३३) जिज्ञासु शिष्ये पूछयुं हतुं के ‘भगवन्! सम्यग्दर्शननुं अने भेदज्ञाननुं आटलुं बधुं शुं
माहात्म्य छे के तेनाथी बंधन अटकी जाय छे! अहा! ज्ञान थतां वेंत ज बंधन छूटी जाय छे–ए ज्ञान
केवुं! आत्मा अने रागादिनुं भेदज्ञान थाय के तरत ज बंधन अटकी जाय–ए कई रीते?’ तेना उत्तरमां
आचार्यदेवे भेदज्ञाननुं स्वरूप स्पष्ट करीने समजाव्युं के–जो भाई! तुं विचार कर के जे ज्ञान छे ते
रागमां ज प्रवर्ते छे के रागथी छूटुं पडीने ज्ञानस्वभावमां प्रवर्ते छे? जो रागमां ज प्रवर्ततुं होय तो ते
ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे–एम तुं जाण; अने जो ते ज्ञान रागथी छूटुं पडीने ज्ञानस्वभावमां वर्ते
छे,–तो ज्ञानमां वर्ततां तेने बंधन केम थाय? न ज थाय.–माटे ज्ञानथी ज बंधननो निरोध सिद्ध थयो.–
कया ज्ञानथी? के स्वभाव तरफ झूकेला ज्ञानथी. आ रीते भेदज्ञाननो अने सम्यग्दर्शननो अचिंत्य
महिमा तुं समज.