: ४ : आत्मधर्म : १९६
जेम माता बाळकने समजावे छे...तेम
आचार्यदेव शिष्यने समजावे छे
जेम माता बाळकने शिखामण आपे त्यारे, कोईकवार एम
कहे के ‘बेटा! तुं तो भारे डाह्यो...तने आ शोभे!’ अने कयारेक एम
पण कहे के ‘तुं मूरख छो...गांडो छो!’–आम कयारेक मृदुताभरेला
शब्दोथी शिखामण आपे तो कयारेक कडक शब्दोमां ठपको आपे,–
परंतु बंने वखते माताना हृदयमां पुत्रना हितनो ज अभिप्राय छे
एटले तेनी शिखामणमां कोमळता ज भरेली छे : तेम धर्मात्मा संतो
बाळक जेवा अबुध शिष्योने समजाववा माटे उपदेशमां कयारेक
मृदुताथी एम कहे के ‘हे भाई! तारो आत्मा सिद्ध जेवो छे तेने तुं
जाण!’ अने कयारेक कडक शब्दोमां कहे के ‘अरे मूर्ख! पुरुषार्थहीन
नामर्द! तारा आत्माने हवे तो ओळख! आ मूढता तारे कयां सुधी
राखवी छे! हवे तो ते छोड!’–आ रीते, कोई वार मृदुसंबोधनथी
अने कोईवार कडक संबोधनथी उपदेश आपे–परंतु बंने प्रकारना
उपदेश वखते तेमना हृदयमां शिष्यना हितनो ज अभिप्राय छे
एटले तेमना उपदेशमां कोमळता ज छे...वात्सल्य ज छे.
अहीं समयसार–कळश २३मां पण आचार्यदेव कोमळताथी
संबोधन करीने शिष्यने उपदेश आपे छे :
अयि ! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्
अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्।
पृथगथ विलसंतं स्वं समोलोक्य येन
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।
रे भाई! तुं कोई पण रीते तत्त्वनो कौतुहली था. हितनी शिखामण आपतां आचार्यदेव कहे छे
के हे भाई! गमे तेम करीने तुं तत्त्वनो जिज्ञासु था...ने देहथी भिन्न आत्मानो अनुभव कर. देह साथे
तारे एकता नथी पण भिन्नता छे...तारा चैतन्यनो विलास देहथी जुदो छे, माटे तारा उपयोगने पर
तरफथी छोडीने अंतरमां वाळ.
परमां तारुं नास्तित्व छे माटे तारा उपयोगने पर तरफथी पाछो वाळ. तारा
उपयोगस्वरूप आत्मामां परनी प्रतिकूळता नथी. मरण जेटलुं कष्ट (–बाह्य प्रतिकूळता) आवे तो
पण तेनी द्रष्टि छोडीने अंतरमां जीवता चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि कर “मृत्वा अपि एटले के मरीने
पण तुं आत्मानो अनुभव कर”–आम कहीने आचार्यदेवे शिष्यने पुरुषार्थनी प्रेरणा आपी छे.
वच्चे