Atmadharma magazine - Ank 196
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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महा : २४८६ : ७ :
जगतमां जीवो अनेक प्रकारना छे; बधाय जीवो एक ज विचारना
थई जाय अथवा तो पोताना विचारने अनुकूळ थई जाय–एम कदी बनतुं
नथी. कोई जीवो तीव्र अज्ञानने लीधे सत्नो विरोध पण करे के निंदा पण
करे...पण मुमुक्षुए तेनी साथे वाद कर्तव्य नथी, मुमुक्षुए तो स्वात्माना
अवलंबनरूप निजकार्य ज कर्तव्य छे. सत्नी निंदा के विरोध करनारा साथे
वादविवाद करीने तेमने हरावी दऊं, के बीजा जीवोने समजावी दऊं,–आवी
बाह्यवृत्तिना वेगने शमावीने, अंतर्मुख थईने निजात्माना आश्रये हितकार्य
साधवामां ज मुमुक्षुए निरंतर परायण रहेवुं, एवी आचार्यदेवनी शिखामण
छे.
मुमुक्षु जीवे सहजतत्त्वनी आराधना कई रीते करवी? तेनी विधि
बतावतां आचार्यदेव कहे छे के–
निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे.
जेम कोई दरिद्र मनुष्य निधि पामे तो ते जगतमां बीजा पासे ढंढेरो
नथी पीटतो, पण पोतानी जन्मभूमिमां जईने गुप्तपणे ते निधिने भोगवे
छे. तेम अनंतकाळथी नहीं पामेल एवी अपूर्व सहजज्ञाननिधिने श्री गुरुना
उपदेशवडे कोई आसन्नभव्यजीव पाम्यो, ते जीव जगतमां ढंढेरो नथी पीटतो
के अमने आम थयुं छे; ते तो अंतरमां ऊतरीने पोताना ज्ञाननिधानने
भोगवे छे. आ रीते परजनोनी अपेक्षा छोडीने, मुमुक्षु जीव पोताना
सहजतत्त्वनी आराधना करे छे. निजस्वरूपनो संग छोडीने, परजनोनो संग
करवा जतां स्वात्मध्यानमां विघ्न ऊभुं थाय छे, माटे ज्ञानी धर्मात्मा ते
परजनोनो संग छोडीने स्वात्मध्यानमां तत्पर थाय छे, ने निजकार्यने
निरंतर साधे छे.
“अहो! अमारो परमानंद अमने अमारा अंतरमां प्राप्त थयो,
श्रीगुरुना चरणकमळनी उपासनाथी अमारा आनंदनिधान अमने प्राप्त
थया,...हवे अमे अंतरमां ऊतरीने अमारा आनंदनिधानने भोगवशुं, जगत
पासेथी अमारे कांई लेवुं नथी तेमज जगतमां कोईनो बोजो अमारा उपर
नथी. “–आ रीते धर्मी जीव अव्यग्र अने निर्भ्रांतपणे पोताना
आनंदनिधानने भोगवतो थको तेनी रक्षा करे छे, एटले पोताना
सहजतत्त्वनी आराधनाने टकावी राखे छे. जगत प्रत्येनो सहज वैराग्य अने
निजस्वरूपमां परायणपणुं धर्मीने निरंतर वर्ते छे, ते ओळखावीने
आचार्यदेवे शिखामण आपी छे के
हे जीव! तुं स्वकार्यमां परायण था.
(नियमसार गा. १पप–प६–प७ उपरना प्रवचनमांथी)