Atmadharma magazine - Ank 196
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : १९६
आत्म – आराधनानो
प्रसाद


नियमसार गा. १प८मां आचार्यदेव कहे छे के : स्वयंबुद्ध एवा तीर्थंकरो अथवा तो बोधितबुद्ध
एवा बीजा धर्मात्मा–पुरुषो, अप्रमत्त मुनिदशाथी मांडीने केवळज्ञान सुधीना गुणस्थानोनी पंक्तिमां
आरूढ थया थका केवळज्ञान पाम्या,–ते कई रीते पाम्या?–के आत्म–आराधनाना प्रसादथी तेओ
केवळज्ञान पाम्या, स्वात्माश्रित ध्यानवडे स्वकार्यने साधवामां परायण थईने तेओए आत्मानी
आराधना करी, अने ए आत्म–आराधनाना प्रसादथी ज तेओ केवळज्ञानधारी थया, कोई रागना
प्रसादथी केवळज्ञान थयुं–एम नथी. सर्वे पुराणपुरुषो, एटले के पूर्वे जे कोई धर्मात्मा पुरुषो मोक्षगामी
थया छे ते सर्वे, आत्मानी निश्चय आराधना करीने तेना प्रसादथी ज मोक्षगामी थया छे. आम अनंता
तीर्थंकरो वगेरेनो दाखलो आपीने आचार्यदेव कहे छे के मोक्ष माटेनो आ एक ज मार्ग छे के स्वात्माना
आश्रये आत्मानी निश्चय आराधना करवी. जुओ, आ मुमुक्षुनुं मोक्ष माटेनुं आवश्यक कार्य.
व्यवहारना विकल्पो ते मोक्ष माटेनुं आवश्यक कार्य नथी, तेना प्रसादथी मुनिदशा के केवळज्ञान थतुं
नथी.
अहीं उत्कृष्ट वात लेवी छे तेथी अप्रमत्त मुनिदशाथी मांडीने केवळज्ञाननी वात लीधी छे; तेनी
नीचेनी चोथा–पांचमा–छठ्ठा गुणस्थाननी सम्यग्दर्शनादि दशा पण आत्मआराधनाना प्रसादथी ज प्राप्त
थाय छे, कांई रागना प्रसादथी सम्यग्दर्शनादि थतुं नथी. देव–गुरुनी भक्ति–बहुमाननो भाव त्यां होय
छे खरो, अने “देव–गुरुना प्रसादथी ज अमने सम्यग्दर्शनादिनी प्राप्ति थई” एम पण धर्मात्मा
विनयथी कहे छे.–पण देव–गुरुए शुं कह्युं हतुं? देव–गुरुए तो एम कह्युं हतुं के तुं अंतर्मुख थईने तारा
आत्मानी आराधना कर; तारा स्वात्माना आश्रये ज तारा सम्यग्दर्शनादि थाय छे.–श्री देव–गुरुनो
आवो उपदेश पात्रतापूर्वक झीलीने ते उपदेश–अनुसार स्वात्मानी आराधना करी त्यारे ते
आराधनाना प्रसादथी सम्यग्दर्शनादि थयुं, अने त्यारे उपचारथी एम कह्युं के श्री देव–गुरुना प्रसादथी
ज सम्यग्दर्शन थयुं. श्री गुरुए कह्युं ते प्रमाणे पोते आराधना करी त्यारे श्री गुरुनो प्रसाद मळ्‌यो एम
कहेवायुं, पण जे जीव पोते अंतर्मुख थईने आत्म–आराधना न करे ने रागथी लाभ मानीने तेना ज
अवलंबनमां अटकी रहे तेने तो रागना प्रसादथी संसारभ्रमण थाय छे, तेने श्री गुरुनो प्रसाद मळ्‌यो–
एम उपचारथी पण कहेवातुं नथी.
अहीं तो कयुं आवश्यक कार्य करवाथी मोक्ष थाय तेनी वात छे. निश्चयस्वभावनो आश्रय
करीने आत्मानी आराधना करवी ते ज परम आवश्यक छे; ते आत्म–आराधनाना प्रसादथी ज
सम्यग्दर्शन थाय छे, ते आत्म–आराधनाना प्रसादथी ज पंचमगुणस्थान प्रगटे छे, ते आत्म–
आराधनाना प्रसादथी ज मुनिदशा थाय छे, ते आत्म–आराधनाना प्रसादथी ज श्रेणी मांडीने
केवळज्ञान थाय छे; माटे तुं पण एवी आत्म–आराधनामां तत्पर था, एवो उपदेश छे. अनंता
तीर्थंकरो अने संतो आवी आत्म–आराधना करी करीने तेना प्रसादथी ज सिद्धपद पाम्या...तेमने
नमस्कार हो!