Atmadharma magazine - Ank 197
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १६: आत्मधर्म: १९७
संतोनी वाणी आत्माने जगाडे छे
१. सम्यग्दर्शनमां आत्मशांतिनुं वेदन छे. ज्यां सम्यग्दर्शन होय त्यां शांति होय ज; ज्यां शांति
होय त्यां सम्यग्दर्शन होय ज. सम्यग्दर्शन थाय ने शांतिनुं वेदन न थाय–एम बने नहीं अने
सम्यग्दर्शन वगर कोईने शांतिनुं वेदन थाय एम बने नहि.
२. हे जीव! जेमांथी सम्यग्दर्शन प्रगटे, जेमांथी परम आनंद प्रगटे, जेमांथी सिद्धपद प्रगटे
एवा अचिंत्य चैतन्यविधान तारा आत्मस्वभावमां ज भरेला छे, तेमां अंतर्मुख थईने
शोध....बहारमां शोध्ये मळे तेम नथी.
३. सिद्धपद वगेरे जेमांथी प्रगटे छे एवो परमपारिणामिक स्वभावी आत्मा क््यां रह्यो छे?–
पोताना सहजज्ञानरूपी किल्लामां ते रह्यो छे; ते सहजज्ञानरूपी किल्लामां मोहनुं कोई धांधल नथी,
तेमां कोई विध्न नथी. अंर्तद्रष्टिरूपी दरवाजाथी ते सहजज्ञान किल्लानी अंदर प्रवेशतां सर्व
आत्मप्रदेशे चिदानंदथी भरेला आत्मानुं दर्शन थाय छे....चेतन्यभगवाननो भेटो थाय छे...अने पछी
ते जीव पोते परमात्मा थई जाय छे.
४. चैतन्यस्वभावी परमतत्त्वमां प्रवेश करनारने चार गतिमां पुनरागमन रहेतुं नथी, केमके
चैतन्यस्वभावी परमतत्त्व पोते चार गतिथी रहित छे.
प. श्री आचार्यदेव करुणापूर्वक कहे छे के अरे जीव! रागादि भावो तो तारे माटे अपद छे...अपद छे
तेने तुं तारुं पद न मान...तारुं पद तो शुद्धचैतन्यमय छे, तेने तुं देख. तारुं शुद्ध चैतन्यपद तारामां ज छे,
छतां अंध थईने तेने तुं देखतो नथी.. ने रागमां तारुं पद मानी रह्यो छे...ते अंधमान्यता हवे छोड...ने
तारा ज्ञानचक्षु खोलीने तारा शुद्धचैतन्य पदने देख...तेने देखतां ज तुं आनंदित थईश.
६. अंध प्राणीओने देखता करवा माटे सन्तो करुणाथी कहे छे के अरे प्राणीओ! तमे तमारा
शुद्ध चैतन्यपदने देखो...आ तरफ आवो रे...आ तरफ आवो. अनादिथी राग तरफ जई रहेला ने
रागमां ज अंधपणे सूतेला जीवोने जगाडीने आचार्यदेव पाछा वाळे छे; अरे जीवो! राग तरफना
वेगथी हवे पाछा वळो....ने आ शुद्धचैतन्य तरफ आवो. तमारुं आ चैतन्यपद परम आनंदरसथी
भरेलुं छे.
७. जेम राजानुं स्थान सुर्वणना सिंहासन उपर होय, धूळमां न होय; तेम हे भाई! तुं चैतन्य–
राजा! तारुं स्थान तो शुद्धचैतन्य–सिंहासने छे, विकारमां तारुं स्थान नथी, माटे तुं जाग... जागीने
तारा निजपदने जो.....
८. धर्ममां बुद्धिमान तेने कहेवाय के जे पोताना स्वभावनो ज आश्रय लईने मुक्तिने साधे छे.
जे जीव एम नथी करतो ने पराश्रयथी लाभ मानीने संसारमां रखडे छे ते जीव भले गमे तेटलुं भण्यो
होय तो पण बुद्धिमानो तेने बुद्धिमान कहेता नथी केमके तेनामां धर्मनी बुद्धि प्रगटी नथी, धर्मनी रीत
कई छे ते तेने आवडतुं नथी.
९. धर्मनी रीते एटले के मोक्षने साधवानी रीत आ छे के, सदाय मुक्त एवा सहज स्वभावनो
आश्रय करवो. मुक्त स्वभावना आश्रये ज मुक्ति थाय....रागादि बंधभाव छे ते बंधभावना आश्रये
तो बंधन थाय पण मुक्ति न थाय.
१०. माटे जे जीव बुद्धिमान छे....जेणे पोतानी बुद्धि धर्ममां जोडी छे एवो मुमुक्षु जीव अंतर्मुख
थईने पोताने सहज स्वभावना आश्रये रत्नत्रयधर्मने आराधीने एकलो ज मोक्षमार्गमां शोभे छे.
संतोनी वाणी आव मोक्षमार्गनी प्रेरणा आपीने आत्माने जगाडे छे.....ए संतोनो महा
उपकार छे.
(नियमसार गा. १७८ ना प्रवचनमांथी वीर सं. २४८६, पोष सुद बीज)