: १८: आत्मधर्म: १९७
आडे जगतना विषयकषायोथी उदास थयो छे ने श्रीगुरु पासे जईने विनयथी पूछे छे: प्रभो! मने
मारा आत्मानी प्राप्ति कई रीते थाय? मारा आत्माना अनुभवनो उपाय शुं? आवा जिज्ञासु शिष्यने
आचार्यदेवे अहीं आत्माना अनुभवनो उपाय समजाव्यो छे.
भाई, तारा आत्मामां वर्तमान विकार होवा छतां ते तारा आत्मानुं लक्षण नथी, तारा
आत्मानुं लक्षण तो चैतन्य छे. ते चैतन्य लक्षणवडे तारा आत्माने लक्षमां लईने अनुभव करतां तने
रागथी भिन्न तारो आत्मा अनुभवमां आवशे ने तारी अतीन्द्रिय शांतिनुं तने वेदन थशे. अमे
अमारा आत्मामां आ जातनो अनुभव करीने तने कहीए छीए के आ उपायथी जरूर आत्मा अने
बंधन छूटा पडी जाय छे ने बंधन वगरनो शुद्ध आत्मा अनुभवमां आवे छे. अमे आ साधनथी
अमारा आत्माने बंधनथी छूटो अनुभव्यो छे, अने तुं पण आ साधनथी तारा आत्माने बंधनथी
छूटो अनुभव कर. आ भगवती प्रज्ञा ज मोक्षनुं साधन छे. आ रीते आचार्य भगवाने शिष्यने मोक्षनुं
साधन बताव्युं.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जाणे छे के ‘चेतनरूप अनुप अमूरत....सिद्ध समान सदा पद मेरो...’
आवा आत्मस्वभावमां अभेद थयेलुं ज्ञान ते ज मोक्षनुं कारण छे. राग तो आत्माना स्वभावथी
बाह्य वस्तु छे, ते आत्माना मोक्षनुं साधन नथी. स्वभाव सन्मुख थतां जे ज्ञानकळा प्रगटी तेनाथी
शिवमार्ग सधाय छे ने भववास मटी जाय छे.
हंस
समस्त मुनिजनोना हृदय कमळनो हंस एवो
जे आ शाश्वत, केवळज्ञाननी मूर्ति रूप, सकळ विमळ
द्रष्टिमय, शाश्वत आनंदरूप, सहज
परमचैतन्यशक्तिमय परमात्मा ते जयवंत छे.
(नियमसार कळश: १२८)
समकिती–हंस
आत्माना चैतन्य सरोवरना शांत जळमां
केलि करनार समकिती हंसने चैतन्यना शांतरस
सिवाय बहारमां पुण्य–पापनी वृत्तिनी के
ईन्द्रियविषयोनी रुचि ऊडी गई छे; चैतन्यना शांत
आनंदरसनो एवो निर्णय (वेदन सहित) थई गयो
छे के बीजा कोई रसना वेदनमां तेने स्वप्नेय सुख
लागतुं नथी. आवो समकिती हंस–निरंतर
शांतरसना सरोवरमां केली करे छे.