: ६ : आत्मधर्म: १९७
पासे आवीने आत्मानुं स्वरूप समजवानो अभिलाषी थयो छे, तेने आ वात समजावे छे. अने
आचार्यदेवने लक्षमां छे के आवी पात्रतावाळो जीव जरूर आ वात समजी जशे. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के
भगवान महावीरना बोधने पात्र कोण?–के सदैव सूक्ष्मबोधनो अभिलाषी होय ते; ते सूक्ष्मबोध एटले
आत्माना स्वभावनो बोध; स्थूळबोध अर्थात् पुण्य–पापनी वात तो जीवे अनंतकाळथी सांभळी छे, पण
पुण्य–पाप रहित चिदानंद स्वभावनी सूक्ष्म वात पूर्वे कदी सांभळी नथी–लक्षमां लीधी नथी. हवे जेने
अंतरमां एम थयुं छे के आ रागनी आकुळताथी पार मारुं चिदानंद स्वरूप शुं छे तेने हुं समजुं!–आवी
जिज्ञासावाळा सूक्ष्मबोधना अभिलाषीने आचार्यदेव आ वात समजावे छे, अने ते जिज्ञासु जीव जरूर
समजी जाय छे.
(७) अंतर्मुखद्रष्टिना अभावे......
आत्मा ज्ञाननो समुद्र छे; ते ज्ञान साथे आनंद पण छे. पोतामां स्वसन्मुख थईने ज्ञाननुं
ज्ञानत्व प्रगट करवाने बदले, बहिर्मुखपणे ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करे छे, तेनुं नाम संसार छे.
अंतरमां आनंदनो समुद्र छे, पण अंतर्मुख द्रष्टिना अभावे ज आनंदनो अभाव छे. भाई! अंतर्मुख
द्रष्टिमां आत्माने ज ध्येय बनावीने ज्ञान–आनंदरूपे परिणमवुं ते तारो स्वभाव छे.
(८) अज्ञानीनुं कर्तापणुं
हुं परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदपणे छुं–एवुं पोतानुं अस्तित्व न भासतां, क्षणिक राग–द्वेषनी
वृत्तिओमां ज ‘आ हुं.....’ एम पोतानुं अस्तित्व माने छे, ते अज्ञानी जीव पोताने रागी ज मानतो
थको रागनो कर्ता थाय छे. अज्ञानीनुं आ कर्तापणुं ते ज संसारनुं मूळ छे.
(९) जेनी रुचि तेनुं कर्तृत्व
जेने जे रुचे छे ते तेने पोतानुं कार्य बनावे छे. जेने रागनी ज रुचि छे एवो अज्ञानी जीव रागने
ज पोतानुं कार्य बनावे छे, रागनी रुचि आडे तेने चैतन्यनी प्रीति नथी. अने जे जीव आत्मार्थी छे, जेने
चैतन्यनी प्रीति छे ते जीव चैतन्यथी विरुद्ध एवा रागादिने पोतानुं कार्य बनावतो नथी.
(१०) कर्तापणानी मर्यादा अने तेनुं फळ
जीवना कर्तापणानी मर्यादा पोताना परिणाममां ज छे, पोताना परिणामनी बहार कोई पण
परद्रव्यनुं कर्तांपणुं तो ज्ञानीने के अज्ञानीने कोईने कदी नथी. अज्ञानी विकारने ज पोतानुं कर्तव्य
मानतो थको तेनो कर्ता थाय छे ने तेना आकुृृळ स्वादने अनुभवे छे. ज्ञानी तो ज्ञान अने रागनुं
भेदज्ञान करीने, ज्ञानने ज पोतानुं कार्य जाणतो थको रागनो कर्ता थतो नथी पण ज्ञाननो ज कर्ता
थईने निराकुळस्वादने अनुभवे छे. आत्माना निराकुळ आनंदनो स्वाद एवो छे के जगतना कोई पण
पदार्थमां–ईंद्र पदना वैभवमां पण ते स्वादनी गंध नथी.
(११) अरे जीव! तुं जाग! तुं तो ज्ञान छो
जेम कोई माणस भ्रमथी पारकुं वस्त्र लावीने, तेने पोतानुं मानीने, ओढीने सूतो होय.....त्यां
कोई सज्जन जाणकार आवीने तेने जगाडे अने कहे के अरे भाई! तुं जाग! आ वस्त्र तारुं नथी पण
पारकुं छे, माटे तेने पारकुं जाणीने तुं छोड!–ए रीते कहेवाथी, जागीने ते वस्त्रने निःशंकपणे पारकुं
जाणतां ज ते तेने छोडी दे छे. तेम अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानानंद स्वभावने भूलीने, रागादि
परभावोने ज पोताना मानतो थको, रागथी लागणीनुं ओढणुं ओढीने सूतो छे, रागनी लागणीना
ओढणामां ज्ञानस्वभावने ढांकी दीधो छे; त्यां कोई संतजन धर्मात्मा तेने जगाडतां कहे छे के अरे जीव!
तुं जाग! तुं तो ज्ञान छो. आ रागादिनी लागणीओ ते तारा स्वभावरूप नथी पण परभावरूप छे,
माटे तेने तारा स्वभावथी भिन्न जाणीने तुं छोड! आ रीते कहेवाथी, जागीने एटले के अंतरमां
भेदज्ञान करीने, ते रागादिने निशंकपणे पोताना स्वभावथी भिन्न जाणतां ज ते जीव ज्ञानी थयो थको
रागादिनुं कर्तृत्व छोडी दे छे. आ रीते रागादिनुं अकर्तापणुं थतां ते आत्माने बंधन थतुं नथी, पण
मोक्ष थाय छे.