Atmadharma magazine - Ank 197
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: १९७
चेतनाना स्वसंवेदनमांथी “आ हुं... आ हुं” एवो ध्वनि ऊठे छे
जीव पोताना अनुभवमां आवता चेतनागुणवडे सदा अंतरमां प्रकाशमान छे. पोताना वेदनमां
‘हुं...हुं’ एवो जे स्वपणानो ध्वनि ऊठे छे ते चैतन्यमांथी ऊठे छे, रागमांथी नथी आवतो. आवा
चैतन्यभावमां हुं–पणे जीवतत्त्व प्रकाशमान छे. पण अज्ञानीने राग ते ज हुं एम थई गयुं छे, ते
रागमां हुं–पणाथी जीवतत्त्व नथी प्रकाशतुं, तेमां तो अज्ञान अने दुःख प्रकाशे छे. रागना वेदनमां
जीवना स्वभावनुं (–सुखनुं) वेदन नथी, माटे ते जीवनो स्वभाव नथी. चैतन्यस्वभावना वेदनमां ज
जीवना स्वभावनुं वेदन छे, माटे ते ज जीवनो स्वभाव छे. आ रीते चेतनागुणवडे परमार्थरूप जीवने
ओळखवो.
कोईनी मदद के टेका वगर ज मोक्षमार्गने साधवानी चेतनानी ताकात छे
मोक्षमार्गमां रागनी कंई मदद खरी? जराक टेको खरो? तो कहे छे के: अरे भाई! मोक्षमार्ग तो
शुद्धचेतनास्वरूप छे, अने ते चेतना तो रागनो नाश करनारी छे. जे जेनो नाश करनार होय तेने ते
मदद करनार केम होय?–माटे मोक्षमार्गने रागनी मदद के टेको नथी. ज्यां रागनी पण मदद के टेको
नथी, त्यां देहनी क्रियानी के बीजा परद्रव्यनी मदद के टेको क््यांथी होय? बधाथी स्वतंत्रपणे (कोईना
पण टेका के मदद वगर) एकली चेतनामां ज मोक्षमार्ग समाय छे. चेतनाथी बहारना कोई पण
भावमां मोक्षमार्ग नथी. सम्यक्श्रद्धा, सम्यक्चारित्र वगेरे बधा निर्मळ भावो तो चेतनामां ज अंतर्गत
छे, ते चेतनाथी बहार नथी. निर्मळ भावोने पोतामां समावी देवानी, ने विभावोने पोतामांथी बहार
काढी नांखवानी चेतनानी ताकात छे.
चैतन्यस्वरूपने प्राप्त करवानो अधिकार भेदज्ञानी जीवोने ज छे
चेतनागुणे पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे; एटले के धर्मीजीवने भेदज्ञानमां
एम भान थयुं छे के ज्ञायक छे ते ज हुं छुं, बीजा कोई भावो ते हुं नथी. आ रीते भेदज्ञानवडे
धर्मात्माए पोतानुं सर्वस्व प्राप्त करी लीधुं छे, माटे कह्युं के चेतनाए पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने
सोंपी दीधुं छे. चेतनाए पोतानुं कंईपण रागने नथी सोप्युं, पण भेदज्ञानने पोतानुं सर्वस्व सोंपी दीधुं
छे. भेदज्ञानीने स्वसंवेदनमां आखो आत्मा आवी गयो छे. चैतन्यस्वरूप उपर द्रष्टि पडतां ‘आ
आनंदकंद चैतन्य ज मारुं सर्वस्व छे’ एम धर्मात्माए जाणी लीधुं छे. अंतरमां भेदज्ञान सिवाय
बीजाने आ खबर पडे तेम नथी. चैतन्यस्वरूपने प्राप्त करवानो अधिकार भेदज्ञानीने ज छे. आ
गाथानो भाव बहु अपूर्व छे. भगवान त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव पासेथी आवेल ते दिव्य ध्वनि छे,
परंपराए आवेला आगममां भगवाननी आवेली दिव्यध्वनि छे. कुंदकुंदाचार्यदेवे तेनी अद्भुत रचना
करी छे...ने अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां तेना अद्भुत गंभीर भावो खोल्यां छे.
चेतना अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवथी तृप्त–तृप्त वर्ते छे
केवो छे आ चेतनागुण? के पोतानु सर्वस्व एटले के आखो आत्मा तेणे भेदज्ञानी जीवोने
सोंपी दीधो छे, अर्थात् चेतनालक्षणवडे आखो आत्मा रागथी भिन्न लक्षित थाय छे अने ते चेतना
अंतर्मुख थईने आत्माना अतीन्द्रिय सुखना संवेदनथी तुप्त–तृप्त वर्ते छे चेतनापर्याय अंतर्मुख थई
तेनी आ वात छे. अंतर्मुख थयेली चेतनापरिणतिमां अभेदपणे आखो आत्मा आवी गयो छे, ने
आत्मा साथे अभेदपणाने लीधे आनंदना अनुभवथी ते तुप्त–तुप्त थई गई छे...हवे ते चेतना
निजस्वरूपथी जरापण चलायमान थती नथी, स्वरूपमां ज निश्चळ रहे छे. आ चेतनानो विकास थतां
समस्त लोकालोकने ते एकसाथे कोळियो करी ल्ये एवी तेनी ताकात छे, अर्थात् चेतना पोताना
केवळज्ञानमां त्रणकाळ त्रणलोकने एक साथे जाणी ल्ये एवी तेनी ताकात छे.
–आवा चेतनास्वरूप भगवान आत्माने जे ओळखे ते जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र पामीने,
पोताना स्वरूपसुखमां ज तृप्त वर्ततो थको मोक्षदशा पामे छे, माटे हे जीवो! तमे आत्मामां ज तेना
अनुभवनो अभ्यास करो. (समयसार गाथा ४९ उपरनां प्रवचनोमांथी)