फागण: २४८६ : ९ :
राजकोट शहेरमां
प्रवचनसार उपरनां
प्रवचनोनो थोडोक नमूनो
(राजकोट शहेरमां प्रवचनसार गा. १७२ उपरनां प्रवचनोमांथी)
‘आत्मानुं असाधारण चिह्न शुं छे, के जेनावडे आत्मा वास्तविकरूपे जणाय? ’–आम जेने प्रश्न
ऊठ्यो छे तेने आचार्यदेव आत्मानुं असाधारण चिह्न ओळखावे छे.
जे आत्माने जाण्या विना अनंत दुःख भोगव्युं अने जेने जाणवाथी अतीन्द्रिय सुखनो
अनुभव थाय, एवा आत्माने जाणवानी जेने खरेखरी जिज्ञासा जागी छे तेने आचार्यदेव कहे छे के
सांभळ भाई! चैतन्यलक्षणवाळो तारो आत्मा छे ते कोई बाह्मचिह्नवडे जणाय तेवो नथी पण तारी
चेतनाने अंतर्मुख करतां ते चिह्नवडे आत्मा अनुभवाय छे.
आत्माने समस्त परद्रव्यो अने परभावोथी जुदो जाणवा माटे तेनी असाधारण चेतना ज
साधन छे, तेनाथी भिन्न बीजुं कोई साधन नथी. जेम शरीरना अंतभूत एवी आंगळीवडे आखा
शरीरना स्पर्शनो ख्याल आवे छे, पण नखवडे के लाकडावडे तेना स्पर्शनो ख्याल आवतो नथी केमके
ते तेनो अवयव नथी. तेम चैतन्यशरीरी आत्माना स्वरूपनो ख्याल तेना अवयवरूप एवा
मतिश्रुतज्ञानवडे आवे छे, परंतु नख जेवा रागद्वेषवडे के लाकडा जेवी ईंद्रियोवडे आत्माना स्वरूपनो
ख्याल आवतो नथी केमके ते तेना अवयवरूप नथी.
जेम लाकडुं जड छे तेम शरीरनी क्रियाओ पण जड छे; अने जेम नख ते शरीरनो भाग नथी
पण वधारानी उपाधि छे, तेम रागादि भावो ते चैतन्यना स्वभावनो भाग नथी पण बहारनी
उपाधि छे. चैतन्यमूर्ति आत्मामां ते जडनी क्रियानो के रागनो प्रवेश नथी; एटले तेमनावडे
चैतन्यस्वरूप आत्मानी ओळखाण के धर्म थाय नहीं.
चैतन्यनी चेतना ते जागृतस्वरूप छे एटले के ते स्वपरने जाणनारी छे; अने पुण्य–पाप तो
अजागृत छे, ते स्वने के परने जाणतां नथी. आ रीते चेतनाने अने पुण्य–पाप भिनेन्नपणुं छे. माटे
पुण्य–पापने आत्माना स्वरूपमांथी बाद करीने, मात्र शुद्ध चेतनारूपे आत्मस्वरूपने लक्षित करवुं.–आ
आत्माने जाणवानी रीत छे.
जुओ भाई, आत्माने जाणवानी आ रीत सांभळतां पण अंदर चैतन्यनो उत्साह आववो
जोईए. अनंत काळना परिभ्रमणना दुःखथी छूटीने चैतन्य घरमां आवीने आनंदनो अनुभव
करवानी आ वात छे, ते अवसरे आत्मार्थीने उल्लास आवे छे.