: १० : आत्मधर्म : १९८ :
भरतना
भाईओनो वैराग्य
आदिनाथ प्रभुना पुत्र भरतराजने एक साथे
त्रण वधामणी आवी...सौथी पहेलां केवळज्ञान प्राप्त
आदिनाथ प्रभुनुं पूजन करीने तेओ षट्खंडनो
दिग्विजय साधवा नीकळ्या...साठ हजार वर्षे
दिग्विजय करीने पाछा फरतां कैलासयात्रा करीने
भगवान आदिनाथ प्रभुनां दर्शन कर्या. ते संबंधी
विस्तृत वर्णन “आत्मधर्म” अंक १९१मां आवी
गयुं छे. कैलासयात्रा बाद हवे भरतचक्रवर्ती
अयोध्यानगरी तरफ आवी रह्या छे.....अयोध्या
नजीक आवतां शुं बन्युं? ते जाणवा माटे आ लेख
वांचो.
भगवान श्री आदिनाथ प्रभुना दर्शन कर्या बाद कैलास पर्वत उपरथी ऊतरीने धर्मात्मा
चक्रवर्ती भरते अयोध्यानगरी तरफ प्रस्थान कर्युं. अयोध्यानी समीप आवी पहोंच्या बाद
नगरीमां प्रवेश करती वखते तेनुं चक्र नगरद्वारमां प्रवेश न करी शक््युं, बहार ज अटकी गयुं. चक्र
अटकी जवाथी आखी सेनामां आश्चर्य फेलाई गयुं. चक्राधिपति भरत पण आश्चर्यथी विचारवा
लाग्या के अरे आ शुं! चक्र केम अटक्युं? आखा भरतक्षेत्रनी बधी दिशाओमां जरा पण रोकटोक
वगर जेणे आक्रमण कर्युं एवुं आ चक्र मारी अयोध्यानगरीना ज दरवाजे केम अटक्युं? मारा
घरनां आंगणामां ज ते केम नथी प्रवेशतुं? भरतराजे निमित्तज्ञानी पुरोहितने चक्र अटकवानुं
कारण पूछयुं, त्यारे पुरोहिते कह्युं: हे स्वामी! घर–आंगणे चक्रनुं अटकी जवुं एम सूचवे छे के
हजी आपनो दिग्विजय अधूरो छे, घरमां ज कोई जीतवायोग्य बाकी रह्युं छे.–अने ते छे आपना
भाईओ. तेओ हजी आपना प्रत्ये नम्या नथी. आपना ९९ भाईओ महाबळवान छे, तेमनामां
पण अतिशय युवान धीर, वीर अने बळवान बाहुबली मुख्य छे. ते आपना भाईओ एवो
निश्चय करी बेठा छे के भगवान आदिनाथ सिवाय बीजा कोईने अमे नमीशुं नहीं.–माटे हे
चक्रधर! आ बाबतमां आपे कांईक उपाय करवो जोईए. कां तो अहीं आवीने तेओ आपने
प्रणाम करे, अथवा तो जगतनी रक्षा करनार जिनेन्द्रदेवना शरणमां जाय,–ए सिवाय तेमनी
त्रीजी कोई गति नथी. तेमने माटे बे ज गति छे–कां तो आपनी छावणीमां प्रवेश करे, अगर तो
मृगोनी माफक वनमां प्रवेश करे (–अर्थात् मुनि थईने वनमां चाल्या जाय.)
पुरोहितनी आ वात सांभळीने भरतमहाराजा क्षणभर क्रोधित थईने कठोर वचन कहेवा
लाग्या: अरे, खेद छे के ते भाईओ मने प्रणाम करवा नथी चाहता; विना कारण ज तेमणे आ वेर
ऊभुं कर्युं छे; तेओना मनमां एम छे के अमे बधा एक ज कूळमां उत्पन्न थया होवाथी अवध्य छीए
(केमके चक्ररत्नवडे सगोत्र–वध थतो नथी)