Atmadharma magazine - Ank 198
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र: २४८६ : १३:
लक्ष्मीना ध्यानमां लीन तेओ राजलक्ष्मीने बिलकुल भूली गया...उत्कृष्ट तपोभावनापूर्वक तेओए
बार अंगनुं अध्ययन कर्युं...परमसंवेगने पामेला ते मुनिराजो जैनशास्त्रोमां उत्कृष्ट भक्ति राखता
हता..... अने समस्त श्रुतज्ञाननुं रहस्य तेओए जाणी लीधुं हतुं–अर्थात् तेओ श्रुतकेवळी थया हता.
श्रुतज्ञान ज तेमना नेत्र हता....ग्रीष्मऋतुमां तो तेओ पर्वतना शिखर उपर ध्यानारूढ
थता....वर्षाऋतुमां वृक्ष नीचे ध्यानमां रात्रि वीतावता.....ज्यारे वादळो धोधमार पाणी वरसावता
त्यारे, ध्यानरूपी गूफामां धैर्यरूपी ओढणी ओढीने ते महामुनिवरो स्थिर रहेता...बहारमां ज्यारे
जोसदार जलवर्षा थती त्यारे अंतरमां असंख्य चैतन्यप्रदेशे तेमने आनंदनी वर्षा थती....ठंडीना
दिवसोमां ते नग्न मुनिवरो मौनपूर्वक खुल्ला आकाशमां रहेता...अने अव्यग्रपणे मोक्षमार्गमां द्रढ
रहेता हता. संसारथी विरक्त थयेला ते मुनिवरो मोक्षना कारणभूत जिनेन्द्रमार्गमां–रत्नत्रयमार्गमां
परम संतुष्ट हता....ते मोक्षाभिलाषी मुनिवरो मोक्षने माटे कम्मर कसीने उद्यमी थया हता. ममता
रहित, परिग्रह रहित अने शरीररूपी लाकडा प्रत्ये पण जेमणे ममत्व छोडी दीधुं छे एवा ते मुनिवरो
जिनेन्द्र भगवाने कहेला मोक्षमार्गनी आराधना करता हता. बालनी एक अणी जेटलो पण परिग्रह
तेओ ईच्छता न हता. सिंह–वाघथी भरेला वन–जंगलमां तेओ निर्भयपणे वसता हता...ने गिरि–
गूफामां चैतन्यध्यान करता हता. स्वाध्याय अने ध्यानमां आसक्त ते मुनिवरो रात्रे पण सूता न
हता...तत्त्वचिंतनमां तत्परपणे तेओ सदा जागता रहेता हता. सर्वत्र निरपेक्ष अने निष्कांक्ष एवा ते
दयाळु मुनिवरो पृथ्वी पर विहरता थका समस्त प्राणीओने पुत्र तुल्य मानता हता ने तेओनी साथे
माता तुल्य व्यवहार करता हता. रत्नत्रयनी शुद्धि माटे तेओ उद्यमी हता....ते परम शांत मुनिवरोनुं
हृदय दीनताथी तो रहित हतुं ने परम उपेक्षाथी सहित हतुं. मोक्षनी प्राप्ति ए ज तेमनो उद्देश हतो.
तेओ सदाय जिनेन्द्रदेवनी आज्ञा अनुसार चालता हता....तेमनुं हृदय संसारथी उदासीन हतुं.
गर्भवास, बुढापो के मृत्यु–एनाथी तेओ सदा भयभीत रहेता,–एटले फरीने बीजी माताना गर्भमां
न आववुं पडे ते माटे तेओ सदा उद्यमी रहेता, श्रुत ज्ञाननेत्रवडे परमार्थने सारी रीते जाणनार ते
चतुर मुनिवरो ज्ञानीदीपिकावडे अविनाशी परमात्मपदनो साक्षात्कार करता हता. ते मुनिवरो प्राण
जाय तो पण निषिद्ध (अशुद्ध के उद्दिष्ट) आहार लेवानी ईच्छा करता न हता, तेओ मात्र
प्राणधारण अर्थे ज शुद्ध आहार लेता हता अने केवळ धर्मसाधन करवा माटे ज तेओ प्राण धारण
करता हता आहार न मळे के मळे, स्तुति के निंदा, सुख के दुःख मान के अपमान, ए बधाने तेओ
समानरूप देखता हता...अनेकविध तपने कारणे ते मुनिओना शरीरमां जो के शिथिलता आवी हती
तथापि समीचीन ध्याननी सिद्धि माटेनी तेमनी प्रतिज्ञा शिथिल थई न हती, तेओ परिषहोवडे
पराजीत थया न हता. परंतु परिषहो ज तेमनावडे पराजीत थई गया हता. तेमने उपवासादि
समस्त बाह्यसाधनो केवळ आत्मशुद्धि माटे ज हता, तेओ ध्याननी उत्कृष्ट विशुद्धता धारण करता
हता, अने योगना प्रभावथी तेमने अनेक महान ऋद्धिओ प्रगटी हती. ध्यानवडे प्रज्वलित
तपाग्निमां तेओ अष्टविध विधिने होमता हता.
–आ प्रमाणे ते ऋषभनंदन मुनिवरो, मुनिपणानी उत्कृष्ट प्रतिज्ञानुं बराबर पालन करता
हता,–ए ठीक ज छे केमके महापुरुषोनो एवो स्वभाव ज होय छे. भगवान ऋषभदेवना ते पुत्रो
अमारुं कल्याण करो–के जेओ पुराणपुरुष भगवान आदिनाथ पासेथी रत्नत्रयनी प्राप्ति करीने तेमना
तीर्थरूपी मानसरोवरना प्रिय राजहंस थया हता; भरतराजने नमस्कार नहीं करवानी ईच्छाथी
राज्यमोह छोडीने जेओ दीक्षित थया हता; “त्रस अने स्थावर समस्त जीवोना गुरु अने ईन्द्रोद्वारा
पूज्य एवा भगवान ऋषभदेवने नमस्कार कर्या बाद हवे अमे बीजा कोईने प्रणाम नहीं करीए”–
एवा विचारथी जेमणे उत्कृष्टदीक्षा धारण करी अने तपविभूतिवडे मोक्षभावना