: ६: आत्मधर्म: १९८
आपो. हे तात! जिनशासनना प्रतापे सिद्धपदने साधवानो जे अंतरनो मार्ग ते अमे जोयो छे, ते
अंतरना जोयेला मार्गे हवे अमे जशुं. आम कहीने, जेमना रोमे रोमे–प्रदेशे प्रदेशे वैराग्यनी धारा
उल्लासी छे. एवा....ते बंने राजकुमारो मुनिदीक्षा लेवा माटे रामचंद्रजीने नमन करीने वनमां चाल्या
जाय छे.
वाह, ए राजकुमारोनी दशा! आज तो आ पावागढ उपर नजर पडी त्यारथी तेमनुं जीवन
नजरे तरवरे छे....ने एमना ज विचार घोळाय छे. अहा, धन्य एमनी मुनिदशा! धन्य एमनो
वैराग्य! ने धन्य एमनुं जीवन! जन्मीने पोतानो अवतार तेमणे सफळ कर्यो.
अंतरमां आत्मभान कर्युं त्यारथी ज बंनेए अंतरमां चैतन्यनी मुक्तिनो मार्ग नीहाळ्यो हतो....आ
संसारमां क््यांय सुख नथी, अमारुं सुख ने अमारी मुक्तिनो मार्ग अमारा अंतरमां ज छे,–आवुं भान तो
पहेलेथी हतुं...तेओ हवे जोयेला मार्गे चैतन्यना आनंदने साधवा माटे अंतरमां वळ्या. जुओ, एम ने एम
आंधळिया (मार्ग जाण्या वगर) दीक्षा के साधुपणुं मानी ल्ये–एनी आ वात नथी; आ तो निःशंकपणे
अंतरमां जोयेला–जाणेला ने अनुभवेला मार्गे मुक्तिपद साधवा माटे जेनुं प्रयाण छे–एवी मुनिदशानी वात
छे. बंने कुमारोने दीक्षा लेतां पहेलां विश्वास छे के अमारा चैतन्यपदमां द्रष्टि करीने अमारी मुक्तिनो मार्ग
अमे नीहाळ्यो छे, ते चैतन्यपदमां ऊंडा ऊतरीने–तेमां लीन थईने अमे आ भवमां ज अमारा मोक्षपदने
साधशुं. अमारो मार्ग अप्रतिहत छे, ते मार्गमां अमने शंका नथी, तेमज अमे पाछा फरवाना नथी,
अप्रतिहतभावे अंर्तस्वरूपमां वळ्या ने वळ्या...हवे मोक्षपद लीधे ज छूटको.
–आवा भावथी मुनि थईने ते बंने मुनिवरो वनजंगलमां विचरे छे ने आत्मध्यानमां
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करतां करतां केवळज्ञान साथे केलि करे छे.
धन्य लव–कुश मुनि आतमहितमें छोडासब संसार
––कि तुमने छोडा सब संसार......
बळदेव छोडा, वैभव सब छोडा, जाना जगत असार
–कि तुमने जाना जगत असार
–आवा ते लव–कुश मुनिवरो विचरतां विचरतां आ पावागढ क्षेत्रे पधार्या... “अहा! जाणे
अत्यारे ज अहीं मुनिवरो विचरता होय!” एवा भावथी गुरुदेव कहे छे: जुओ, लव–कुश मुनिवरो
आ पावागढ क्षेत्रे पधार्या...ने आ पर्वत उपर ध्यान कर्युं...ध्यान करतां करतां चैतन्यरसमां एवा लीन
थया के क्षपकश्रेणी मांडी...एम करतां करतां शुं थयुं? ... के–
चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ‘अहीं’
भवनां बीजतणो आत्यंतिक नाश जो;
सर्व भाव ज्ञाता द्रष्टा सह शुद्धता,
कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो.....
आ पावागढ पर्वत उपर चैतन्यनुं ध्यान करतां करतां ए बंने मुनिवरो केवळज्ञान पाम्या...
कृत्यकृत्य परमात्मा थया....
(ते परमात्माने अमारा नमस्कार हो.)
केवळज्ञान थया पछी अल्पकाळे अहींथी ज तेओ मोक्ष पाम्या....तेमनुं आ सिद्धिधाम तीर्थ
छे....काले तेनी जात्रा करवानी छे. आपणे तो हजी ठेठ दक्षिणमां बाहुबली भगवाननी जात्रा करवा
जवानुं छे......तेमां वच्चे आवा अनेक तीर्थो पण आवशे. आ तो हजी पहेलवहेलु्रं मूरत छे.
मणि–रत्ननी पूतळी जेवा राजकुमारोए वैराग्य पामीने मुनिदीक्षा लीधी, ने ‘पवित्रधाम’मां
जईने...कयुं पवित्र धाम?–निर्मळ चैतन्यस्वभावरूप पवित्र धाम; तेमा जईने.....अंतरमां ऊंडा उतरीने,
एकांत–एकांत शांतधाममां तेमणे चैतन्यनी परमात्मदशाने आ पावागढ क्षेत्रमां साधी छे; ते उपरांत
लाटदेशना नरेन्द्र अने प, ००, ००००० (पांच करोड) मुनिवरो अहींथी अपूर्व सिद्धपद पाम्या छे.