Atmadharma magazine - Ank 198
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र: २४८६ : ७:
लवांकुश अने मदनांकुश (टुंकुं नाम–लव अने कुश) ए बंने राम–सीताना पुत्रो हता....बंने
चरमशरीरी हता...बंने साथे जन्म्या हता...बंनेए साथे दीक्षा लीधी हती...ने बंने मोक्ष पण अहींथी
पाम्या हता. एक वार युद्धमां तेमणे राम–लक्ष्मणने पण थकावी दीधा हता....बंनेने चैतन्यनुं भान हतुं
ने चैतन्यना परमआनंदनो मार्ग अंतरमां देख्यो हतो....अंतरमां देखेला मार्गे चालीने तेओ अहींथी
सिद्धपरमात्मा थया. सवारथी ए लव–कुशने याद करतां करतां अहीं आव्या छीए. आ पावागढ
सिद्धक्षेत्रमां जीवनमां पहेलवहेला आव्या छीए....आ पावागढ पवित्र क्षेत्र छे...रस्तामां दूर दूरथी
तेना दर्शन करीने, लव–कुशने याद करता करता आव्या छीए. अंतरना चिदानंदस्वरूप परमात्मामां
लीन थईने तेमणे पोतानी आत्मशांतिने साधी. अहीं पण आपणे मंगळ तरीके एवा चिदानंदस्वरूप
परमात्माने नमस्कार करवानी वात आवी छे.
चिदानंदैक सद्भावं परमात्मानभव्ययं।
प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम्।।४।।
(पद्मनंदी–एकत्व अधिकार)
ज्ञान ने आनंदरूपे जेनुं अस्तित्व छे एवो जे अविनाशी परम आत्मस्वभाव, तेने हुं प्रणमुं
छुं.–तेनो आदर करीने तेना तरफ झूकुं छुं;– केम के सदा शांत एवो ते आत्मस्वभाव सर्व कर्मोनी
शांतिनुं कारण छे, तेथी सर्वे कर्मोने शांत करवा माटे हुं मारा परम शांत आत्मस्वरूपने प्रणमुं छुं.
जुओ, आ रीते पोताना आत्मस्वरूपने जाणीने, तेनो आदर करीने, तेना तरफ वळवुं–प्रणमवुं ते
अपूर्व मंगल छे, ते ज मोक्ष तरफनी अपूर्व यात्रा छे.
‘जेनामां ठांसी–ठांसीने आनंद भरेलो छे एवो अमारो चिदानंदस्वभाव छे’–आवा
भानसहित लव–कुश कुमारो रामचंद्रजीने कहे छे: हे पिताजी! अमने आज्ञा आपो....अमे हवे अमारा
चिदानंद स्वरूपमां समाई जवा मांगीए छीए....आ संसारमां बहारना भाव अनंतकाळ कर्या, हवे
आ संसारने अमे स्वप्नेय ईच्छता नथी....हवे तो मुनि थईने अमे अमारी पूर्ण अतीन्द्रिय परम
आनंददशाने साधशुं. पिताजी! आ जीवे चारे गतिना अवतार संसारभ्रमणमां अनंतवार कर्या छे,
एकमात्र सिद्धपद कदी प्राप्त कर्युं नथी; हवे तो अमे अमारा चिदानंदस्वरूपमां समाई जशुं ने अभूतपूर्व
एवा सिद्धपदने पामशुं.
पुण्य पामे स्वर्गपद, पापे नरकनिवास;
बे तजी जाणे आत्मने, ते पामे शिववास.
लव–कुश कुमारो कहे छे: पुण्य अने पाप बंनेथी भिन्न अमारा ज्ञानानंदस्वरूपने अमे जाण्युं छे,
अने हवे तेमां लीन थईने अमे अमारा शिवपदने साधशुं. हवे अमे संसारथी (–पाप अने पुण्य
बंनेथी) विरक्त थईने अमारा चैतन्यस्वरूपमां समाई जशुं. रामचंद्रजी धर्मात्मा होवा छतां
बंधुप्रेमना मोहथी लक्ष्मणनुं मडदु कांधे फेरवी रह्या छे, ते देखीने बंने पुत्रो वैराग्य पामे छे; अरे,
संसारनी आ स्थिति! आत्मानुं भान होवा छतां चारित्रमोहथी आ दशा! अरे, शरीरनी आ
क्षणभंगुरता! –तेनो विश्वास शो? संध्याना आथमता रंग जेवो आ संसार! –तेने छोडीने हवे अमे
अमारा जाणेला अंतरना मार्गे जईशुं.
आम वैराग्यथी पितानी रजा लईने बंने कुमारो महेन्द्र–उद्यानमां गया अने अमृतेश्वर
मुनिराजना संघमां दीक्षा लीधी, पछी आत्मध्यानपूर्वक विचरतां विचरतां अहीं पावागढ पर्वत उपर
आव्या ने ध्यानमां लीने थईने केवळज्ञान प्रगट करीने मोक्षपद पाम्या. आ रीते शुद्धरत्नत्रयरूप जे
परमार्थ तीर्थ तेना वडे संसारने तरीने अहींथी तेओ सिद्धपद पाम्या, तेथी आ क्षेत्र पण व्यवहारे तीर्थ
छे. निश्चयतीर्थ जे शुद्धरत्नत्रय तेना स्मरण माटे अने तेना बहुमान माटे आ तीर्थयात्रा छे. जात्रानो
आवो भाव ज्ञानी–धर्मात्माने(–मुनिवरोने पण) आवे छे, अने ते भावनी मर्यादा केटली छे ते पण
तेओ जाणे छे.
अहा, सवारमां आ पावागढ–सिद्धक्षेत्रे आव्या