: ८: आत्मधर्म: १९८
त्यारथी लवकुश ज याद आवे छे....एमनुं जीवन जाणे नजरे तरवरे छे...बंने रामपुत्रो परणेला हता,
पण अंतरमां भान हतुं के अरे, आ क्षणभंगुर संसारमां कोण कोनो पति, ने कोण कोनी पत्नी? कोण
पुत्र ने कोण माता? पुत्रने माताए गोदमां लीधो त्यारपहेलां तो अनित्यताए तेने पोतानी गोदमां
लीधो छे. माता गोदमां लईने पुत्रनुं मुख जुए त्यारपहेलां ज तेने अनित्यता लागु पडी गई छे,–
क्षणे क्षणे तेनुं आयुष्य घटवा मांडयुं छे. आवो तो अनित्य संसार छे...संयोगोनी स्थिति ज आवी छे,
तेमां क््यांय शरण नथी; मातानी गोद पण अशरण छे, त्यां बीजानी शी वात!–अमे तो हवे अमारा
नित्यचिदानंद स्वभावनी गोदमां जशुं....ते ज अमारुं शरण छे, ने तेमां ज अमारो विश्वास छे. ज्यां
अमारो विश्वास छे त्यां ज अमे जईशुं. अनित्य–संयोगोनो विश्वास अमने नथी, तेथी तेमां अमे नहि
रहीए...संयोग तरफनुं वलण छोडीने अमे असंयोगी स्वभावमां ठरशुं....अमने निःशंक विश्वास छे के
स्वभावमां ज अमारुं सुख छे ने संयोगमां सुख नथी. अनादिथी अमारी साथे रहेनारो एवो जे
अमारो नित्य चिदानंदस्वभाव, तेनो ज विश्वास करीने हवे तेनी पासे ज अमे जईशुं....संयोगथी दूर
जशुं ने स्वभावनी समीप थशुं.....
ते स्वभावनो मार्ग अमे जोयेलो छे....ते जाणेला
मार्गमां अमे जईशुं....ने मुक्तिने वरशुं.
जुओ, आ निःशंकता! धर्मात्माने अंतरमां निःशंक भान होय छे के अमे मार्ग जोयो छे....ने ते
मार्गे चाली रह्या छीए. “आ मार्ग हशे के बीजो मार्ग हशे! आत्मा सम्यग्दर्शन पाम्यो हशे के नहि
पाम्यो होय!” आवो कोई संदेह धर्मीने होतो नथी, अमे अमारा स्वानुभवथी मार्ग जोयेला छे, अने
ते जोयेला मार्गे अमारो आत्मा चाली रह्यो छे–एम धर्मात्माने निःशंक द्रढता होय छे. मार्गना आवा
निःशंक निर्णयपूर्वक बंने राजकुमारो दीक्षा लईने चैतन्यमां एवा लीन थया के केवळज्ञान प्रगट करीने
मोक्ष पाम्या. आ पावागढमां जे ठेकाणेथी मुक्त थया तेनी बराबर उपर अत्यारे तेओ
सिद्धभगवानपणे बिराजे छे. उपर अनंत सिद्धभगवंतोनी पंक्ति बेठी छे. ते सिद्धभगवंतोनुं स्मरण–
बहुमान करवामां आ सिद्धक्षेत्र निमित्त छे.
लव–कुश कुमारो, लाटदेशना नरेन्द्र अने पांच करोड मुनिवरो ते बधाय अहींथी सिद्ध थईने
अत्यारे उपर लोकाग्रे बिराजे छे; आवा सिद्धभगवानने वास्तविकपणे ओळखतां संसारनो विश्वास
ऊडी जाय ने सिद्धभगवान जेवा चिदानंदस्वभावनो विश्वास थाय, एटले सिद्धिनो पंथ हाथ आवे.
आनुं नाम तीर्थयात्रा. आवी तीर्थयात्रा करनार जीव संसारथी तर्या वगर रहे नहीं.
लव–कुश वगेरे भगवंतो अहींथी मुक्तिनगरमां पहोच्या....मुक्तिनगरमां कांई गढ के बंगला
वगेरे नथी, पण चैतन्यनो पूर्णानंद स्वभाव खीली गयो छे, तेनुं ज नाम मुक्तिनगर छे. त्यां तेओ
ईन्द्रियविषयोथी पार अतीन्द्रिय स्वभावसुखने निरंतर अनुभवे छे.
चैतन्यस्वभावने पामेला परमात्मा दुनियाना जीवोने दर्शावे छे के अरे जीवो! तमे पण अमारा
जेवा परमात्मा छो, तमारामां अमारा जेवी ज पूर्ण ज्ञान ने आनंदनी ताकात भरी छे. तेनो विश्वास
करो...ने तेमां अंतर्मुख थाओ....एमां ज तमारुं सुख छे. बाह्यईन्द्रिविषयोमां के बाह्य वृत्तिमां क््यांय
तमारुं सुख नथी.
संतो परम करुणापूर्वक सर्वज्ञभगवाननो संदेश जगतना जीवोने संभळावे छे: अरे जीवो! तमारा
चिदानंद तत्त्वने ओळखीने तेमां ठरो....आ मुदनी वात छे....बीजी वात तो अनादिथी करता आव्या छो,
तेमां कांई हित नथी. अनंतकाळमां पूर्वे कदी नहि करेली अने जेनाथी अपूर्व हित थाय–एवी मुदनी वात
तो आ ज छे के ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने ओळखवो. जगतनी बीजी बधी चीजोनो महिमा अने माहात्म्य
ऊडाडी दईने, अने चैतन्यस्वभावनो महिमा अने माहात्म्य बराबर समजीने तेमां वळवुं, ते ज
परमात्माने खरा नमस्कार छे, ते ज रत्नत्रयतीर्थनी खरी यात्रा छे ने ते ज सिद्धिनो पंथ छे.