Atmadharma magazine - Ank 199
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: १९९
(वैशाख सुद बीजना मंगलदिने फत्तेपुरनगरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन)
जुओ भाई, जगतमां बधुं सुलभ छे परंतु
चैतन्यतत्त्वनी वार्ता अति दुर्लभ छे. अंतरमां
चिदानंदस्वरूप आत्मानो अनुभव केम थाय, ते
ज करवा जेवुं छे....तेमां ज आत्मानी फत्तेह छे....ने
तेमां ज जीवननी सफळता छे. भाई, एक वार
चैतन्यनी वात लक्षमां लईने होंसथी हा पाड...
तो तारी अपूर्व फत्तेह थाय...ने तने मोक्षपद मळे.
सर्वज्ञदेवनी वाणी हो के साधक संतोनी वाणी हो, तेमनुं कथन एक ज प्रकारनुं सम्यक् होय छे;
सम्यक् श्रद्धा तेमनी सरखी छे. सर्वज्ञ परमात्मा हो, चारित्रधारी संत मुनि हो, के अविरत सम्यग्द्रष्टि
हो, तेमनी श्रद्धा ने प्ररूपणा सरखी ज होय छे, तेमां फेर होतो नथी. स्वरूपस्थिरतारूप आचरणमां
हीनाधिकता होय, पण प्ररूपणामां परस्पर विरोध होतो नथी.
आत्मस्वरूपनुं भान करीने तेने साधतां साधतां ज्यारे स्वरूपस्थिरता प्रगटे ने मुनिदशा थाय
त्यारे बाह्यमां पण वस्त्रादि परिग्रहरहित थई जाय छे. आवा वनवासी दिगंबर मुनिराज पद्मनंदीदेवे
आत्माना आनंदमां झूलतां झूलतां आ शास्त्र रच्युं छे. सर्वज्ञदेव अनुसार तेमनी प्ररूपणा होय छे.
सम्यग्द्रष्टि पण श्रद्धामां तो सर्वज्ञ जेवा ज छे. सर्वज्ञदेव अने अव्रती सम्यग्द्रष्टिनी सम्यक् श्रद्धामां कांई
फेर नथी. सम्यग्द्रष्टि केवा छे? –
स्वारथ के साचे परमारथ के साचे चित,
साचे साचे वैन कहे साचे जैन मति है;
काहूके विरोधी नांही परजाय बुद्धि नांही,
आतमगवेषी, न गृहस्थ है न यती है.
सिद्धि–रिद्धि–वृद्धि दीसे घटमें प्रगट सदा,
अंतरकी लक्षीसों अजाची लक्षपती है;
दास भगवंत के उदास रहे जगत सों
सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है.
(कविवर बनारसीदासजी)