वैशाख: २४८६ : ९ :
जुओ, आ सम्यग्द्रष्टिनी दशा! सम्यग्द्रष्टिने बाह्यनी परवा होती नथी, ते जगतथी उदास छे,
चैतन्य स्वरूपनी ज तेने प्रीति छे, परमात्मपदनी तेने लगनी लागी छे. अंतरनी चैतन्यसंपदाना
अनुभवपूर्वक ते चैतन्यलक्ष्मीनो स्वामी थयो छे, जगत पासेथी तेने कांई जोईतुं नथी. ते जगतथी
उदास छे ने जिनेश्वर भगवाननो दास छे एटले के भगवाने कहेला मार्गनी आराधनामां तत्पर छे.
अहीं पद्मनंदीपचीसीना निश्चयपंचाशत अधिकारमां (प२ मी गाथामां) आचार्यदेवे कह्युं के
मुनिवरोना हृदयमां जे चैतन्यतत्त्वनी प्राप्ति थतां विकल्पो नष्ट थई जाय छे–ते चैतन्यतत्त्वने नमस्कार
करो. राग तरफ न नमो, विकल्प तरफ न नमो. चिदानंद तत्त्वनुं बहुमान करीने ते तरफ ज नमो. आ
ज विकल्पोने जीतीने फतेह मेळववानी रीत छे. मुनिनी मुख्यताथी संबोधन कर्युं छे परंतु नीचली
दशामां पण समकितीने एज वात लागु पडे छे. ज्यारे विकल्पोथी पार थईने चैतन्यतत्त्वनो अनुभव
करे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
सम्यग्द्रष्टिने अंतरमां केवा आत्मानो अनुभव होय छे ते आ प३मी गाथामां बतावे छे:–
बद्धो वा मुक्तो चिद्रूपो नयविचारविधिरेषः।
सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः।।५३।।
चैतन्यस्वरूप आत्मा बंधायेलो छे के मुक्त छे–ए बधी नयविचारनी विधि छे, एटले के
विकल्पनी रीत छे, ते विकल्पमां शुद्धात्मानो अनुभव नथी. ते सर्व नयपक्षरूप विकल्पोथी रहित थाय
त्यारे ज साक्षात् समयसार थाय छे, त्यारे ज शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे. सम्यग्द्रष्टि पोताना
आत्माने आवो अनुभवे छे.
जुओ भाई, जगतमां बीजुं बधुं सुलभ छे. परंतु आ चैतन्यतत्त्वना अनुभवनी वार्ता अति
दुर्लभ छे. अंतरमां चिदानंदस्वरूप आत्मानो अनुभव केम थाय ते ज करवा जेवुं छे. भगवान
शांतिनाथ–कुंथुनाथ–अरनाथ ए त्रणे तीर्थंकरो पहेलां चक्रवर्ती हता; जन्म्या त्यारथी ज ते त्रणे
आत्मज्ञान उपरांत त्रण ज्ञान सहित हता, ईंद्रोए तेमनो जन्माभिषेक कर्यो हतो, ने हजारहजार
नयनोथी तेमनुं दिव्यरूप नीहाळवा छतां तृप्त थया न हता. पण जन्म्या त्यारथी ज तेमने अंतरमां
भान हतुं के अमे शुद्ध चैतन्यरूप छीए, आ देहनुं दिव्यरूप ते अमे नथी, ईंद्रो नमे तेने लीधे कांई
अमारा आत्मानो आवो ज स्वभाव छे. आवा आत्माने ओळखे तेणे भगवानने ओळख्या कहेवाय
ने ते ज भगवाननो साचो भक्त कहेवाय. प्रभो! तारा आत्मानो साचो स्वभाव समज्या वगर
जगतमां तेने कोई शरणरूप, मंगलरूप के उत्तमरूप नथी. केवो छे आत्मा?
सर्वनयपक्षथी रहित छे; देहादिथी तो जुदो छे, बहारना पदार्थो संबंधी स्थूळ राग–द्वेष तेनाथी
पण जुदो छे, ने अंदरमां ‘हुं ज्ञान छुं’ ईत्यादि जे सूक्ष्म विकल्पो तेना संबंधथी आत्माने ओळखवा
मांगे तो पण ते ओळखातो नथी. ते विकल्पने पण ओळंगीने, ज्यारे ज्ञानने आत्मसन्मुख करे त्यारे
आत्मा ओळखाय छे.
रे जीव! आ मनुष्यदेह तो माटीनुं ढींगल छे....ते क्षणमां वींखाई जशे....संयोगो अनित्य छे,
चिदानंद स्वभाव एक ज आत्माने माटे धु्रव छे–ते ज शरण छे. आत्माने कोई पण पदार्थनो संयोग
नित्य नथी तेथी ते शरणरूप नथी. समवसरण अनित्य, पर्वतो ने प्रतिमाओनो संयोग अनित्य, अने
जात्रा वगेरेना रागनी वृत्तिओ पण अनित्य; एक असंयोगी चिदानंदतत्त्व ज सदा धु्रव रहेनार छे,
तेओ कदी वियोग नथी, ते ज शरणरूप छे. धर्मीने तेनुं ज आलंबन छे.
धर्मी जाणे छे के मारा शुद्धस्वभावनी संपदा कर्मथी रहित छे, मारी चैतन्यसंपदा कर्मथी
बंधायेली नथी. हुं बंधायेलो छुं एवी वृत्ति, के हुं मुक्त थाउं एवी वृत्ति–ते चैतन्यस्वरूपथी बहार छे.
चैतन्यस्वरूपने पकडतां ‘हुं बंधायेलो छुं के हुं मुक्त छुं’ एवी रागवृत्तिने कर्तृत्व रहेतुं नथी, ने
रागरहित चिदानंदस्वभावनी प्रतीति–अनुभव थाय छे, ते मोक्षमार्गनुं पहेलुं पगथियुं छे.
आ सम्यग्दर्शननी वात छे. सम्यग्दर्शननी आ भूमिका