Atmadharma magazine - Ank 199
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म: १९९
पण अचिंत्य–अलौकिक–अपूर्व छे. चैतन्यतत्त्वनी सन्मुख थतां रागवृत्तिनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी,
वीतरागी आनंदना अंशनुं वेदन थाय छे.–आवी भूमिका वगर धर्मनी शरूआत थती नथी. जेम सीरो
करवानी जे रीत होय ते ज रीते सीरो थाय छे, तेम सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्गमां पहेलां
सम्यग्दर्शन होय छे, ने पछी चारित्र होय छे. सम्यग्दर्शन वगर व्रत–तप के चारित्र माने तो तेने
मोक्षमार्गनी विधिनी खबर नथी. बंध–मोक्षबंधथी विकल्पना पक्षमां ऊभो रहीने आत्माना
स्वभावनो अनुभव थतो नथी. ‘हुं शुद्ध छुं–मुक्त छुं’ एवा निश्चयसंबंधीना विकल्पना कर्तृत्वमां
रोकायेलो जीव पण हजी आत्माना अनुभवथी बहार छे. बंध–मोक्षना विकल्पनुं कर्तृत्व छोडीने,
आनंदस्वरूप आत्मामां ढळतां सम्यग्दर्शनरूपी पहेलो धर्म थाय छे.
सम्यग्दर्शन पामवानो अधिकारी जगतमां परना कर्तृत्वथी उदास छे, मारुं चैतन्यतत्त्व जगतथी
जुदुं छे, ने एक रागनी वृत्तिनुं कर्तृत्व पण मारा चैतन्यमां नथी,–आवा यथार्थ लक्षपूर्वक ते चैतन्यना
अनुभवनो उद्यमी छे. रागनी वृत्तिनुं उत्थान ते चैतन्यना अनुभवनो उपाय नथी, पण
चैतन्यस्वभावनी सन्मुखतानो उद्यम ते ज चैतन्यना अनुभवनो उपाय छे.
अहा, चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेनुं लक्ष पण जीवे कदी बांध्युं नथी. जगतना पदार्थोना द्रव्य–
क्षेत्र–काळ–भाव आ आत्माथी भिन्न छे, एक रजकणमात्रनुं पण कर्तापणुं आत्मामां नथी.–आवा
आत्माने लक्षमां लीधा वगर, परना कर्तापणानी बुद्धिमां अटकेला जीवो अंर्तस्वभावमां क््यांथी
वळे? परना कर्तृत्वनी वात तो दूर रहो, अहीं तो आचार्यदेव अंतरनी सूक्ष्म वात समजावे छे के
चैतन्यना आंगणे आवीने पण ज्यांंसुधी ‘बद्ध–मुक्त’ ना विकल्पमां रोकाय छे त्यांसुधी शुद्धआत्मानो
अनुभव थतो नथी. चैतन्यस्वभावमां बद्ध–मुक्त संबंधी राग–विकल्पो नथी, तेथी ते रागविकल्पोना
कर्तृत्वमां अटकेला जीवने (–भले मुक्त संबंधी विकल्पो होय तो पण) शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो
नथी, शुद्धात्मा तरफ वळ्‌या पहेलां शरूआतमां तेवा विकल्पो होय छे खरा, पण ते विकल्पो साधक नथी
पण बाधक छे, माटे ते विकल्पथी पार थईने अंतर्मुख साक्षात् चिदानंदस्वरूपनो स्वाद लेवो ते
‘समयसार’ छे, ते ज सम्यग्दर्शन छे.....तेमां आत्मानी फतेह छे.
अहो, आ अपूर्व वात छे...अपूर्व कल्याण करवानी आ वात छे. आ अपूर्व समजण करवी
तेमां ज जीवननी सफळता छे. आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! एक वार अमारी वात सांभळीने
लक्षमां तो ले....आवो ज मारो स्वभाव छे–एम लक्षमां लईने होंसथी हा तो पाड. आ वातनी हा
पाडवाथी पण तारुं अपूर्व कल्याण थशे. जुओ, आ फत्तेहपुरमां आत्मानी फत्तेह थाय.–एवी सरस
वात आवी छे. आत्मा अज्ञानभावे हारी गयो छे, आ समजवाथी आत्मानी फत्तेह थाय छे ने आत्मा
संसारथी छूटीने सिद्धदशा पामे छे.