: १२ : आत्मधर्मः१९९
छुं, अनित्य छुं’ आ प्रकारे स्वतत्त्व संबंधी विकल्पोमां अटकवुं ते पण स्वानुभवमां बाधक छे, तो पछी
परनुं करुं–एवा बाह्यमां झूकता विकल्पोमां अटके तेनी तो वात ज शी?–ए तो स्वानुभवथी घणे दूर–
दूर छे. जे खरी धगशवाळो छे, खरो आत्मानो रंगी छे, ते जीव एवा दुर्विकल्पोमां तो नथी अटकतो,
अने स्वानुभव पहेलां वच्चे आवी पडेला भेद–विकल्पोमां पण ते अटकवा नथी मांगतो, तेने पण
ओळंगीने स्वानुभवमां ज पहोंचवा मांगे छे. कई रीते स्वानुभवमां पहोंचे छे ते वात १४४मी
गाथामां आचार्यदेवे अलौकिक ढबे बहु सरस समजावी छे.
२१. ज्ञानस्वभाव तरफ ढळतां ढळतां, हजी ज्यां सुधी साक्षात् ज्ञानमां आव्यो नथी त्यां सुधी
वच्चे आवा विकल्पोनी जाळ आवशे, ते बतावीने आचार्यदेव कहे छे के ते विकल्पजाळमां तुं गुंचवाई
न जईश, पण ज्ञानने तेनाथी जुदुं तारवीने ते विकल्पजाळने ओळंगी जाजे, ने ज्ञानने अंतरमां लई
जाजे. आम करवाथी निर्विकल्प स्वानुभवनो अपूर्व आनंद तने अनुभवाशे.
२२. अहा, द्रष्टि पलटतां बधुं पलटी जाय छे; उपयोगनो पलटो करवानो छे. उपयोगनुं लक्ष
बहारमां अटकवाथी संसार ऊभो थयो छे, उपयोगनुं लक्ष अंतरमां वाळतां संसार टळीने मोक्ष थाय छे.
उपजे मोहविकल्पथी समस्त आ संसार;
अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.
२३. मूळवस्तुस्वभाव शुं छे तेना अंतर्मुखी निर्णय वगर विकल्पथी भिन्नता थई शके नहि
जे जीव ज्ञानस्वभावमां अंतर्मुख थयो ने विकल्पथी जुदो पड्यो, तेने पछी अमुक प्रकारना
रागना विकल्पो होय तो पण तेना ग्रहणनो उत्साह नथी, तेना अवलंबननी बुद्धि नथी, उत्साह
तो चैतन्य तरफ ज वळी गयो छे, बुद्धिमां एटले के भावश्रुतज्ञानमां चैतन्यस्वभावनुं एकलुं ज
अवलंबन छे.–आवो समकिती धर्मात्मा नयपक्षथी अतिक्रांत थयेलो शुद्धआत्मा छे, ते ज
‘समयसार’ छे.
२४. अहा! निर्विकल्प अनुभव वखते समकिती धर्मात्मा केवो होय छे, ते वात भगवान
केवळज्ञानी साथे सरखावीने आचार्यदेवे अलौकिक रीते समजावी छे. जे जे जीवने सम्यग्दर्शन थाय तेने
आवी दशा होय छे.
२प. जेम केवळी परमात्मा नयोना पक्षथी पार छे तेम अनुभवदशामां समकिती पण नयोना
पक्षथी पार छे; ए वात केवळी भगवानना द्रष्टांतथी आचार्यदेवे स्पष्ट रीते समजावी छे–
* जेम केवळीभगवान विश्वना साक्षीपणाने लीधे नयपक्षना स्वरूपना पण साक्षी ज छे–ज्ञाता
ज छे. तेम समकिती धर्मात्माने नयपक्षना विकल्पोना ग्रहणनो उत्साह छूटी गयो होवाथी, एटले
चैतन्य प्रत्ये ज उत्साह वळी गयो होवाथी, ते पण नयपक्षना विकल्पोनो साक्षी ज छे ज्ञाता ज छे.
तेनाथी जुदो पडीने तेनो अकर्ता थई गयो एटले साक्षी ज रह्यो.
* केवळीभगवान सकळविमळ केवळज्ञानवडे विज्ञानघन थया छे, तेमां नय पक्षना विकल्पोनो
प्रवेश नथी; तेम समकिती धर्मात्मा पण भावश्रुतने अंतर्मुख करीने, तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी
चैतन्यस्वभावने ग्रहण करीने तेमां ज प्रतिबद्ध थया छे, एटले के चैतन्यना अनुभववडे विज्ञानघन
थया छे, तेथी तेना अनुभवमां पण नयपक्षना विकल्पोनो प्रवेश नथी.
* केवळीभगवान सदा विज्ञानघन थया छे, तो श्रुतज्ञानी धर्मात्मा पण अनुभवदशा वखते
विज्ञानघन थया छे.
* केवळीभगवान तो श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ज ओळंगी गया छे एटले तेमने नयपक्षना
विकल्पोनुं उत्थान रह्युं नथी; श्रुतज्ञानी समकिती धर्मात्मा–(भले स्त्री हो, नरकमां हो, तिर्यंच हो के देव
हो) ते पण अनुभवना काळे श्रुतज्ञानसंबंधी समस्त नयपक्षना विकल्पोथी अतिक्रांत थया छे,
निर्विकल्प थया छे, तेथी ते पण नयपक्षना विकल्पथी पार छे.