: १४ : आत्मधर्म: १९९
३४. ‘ज्ञानस्वभाव ते हुं’ एवा निर्णयमां तो घणुं जोर छे, ते अपूर्व निर्णयनुं जोर क्षणे क्षणे
मिथ्यात्वने तोडतुं जाय छे ने रागने मंद करतुं जाय छे.
३प. भाई, तारे जो शांति जोईती होय, सम्यग्दर्शन जोईतुं होय, मोक्षमार्गी थवुं होय तो,
बीजी बधी वातने एककोर मूकीने तारा उपयोगमां एम नक्की कर के ज्ञानस्वभावी आत्मा ज हुं छुं.
आवा निर्णयना जोरे तारुं ज्ञान, ज्ञानस्वभावमां ज एकाग्र थशे एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थशे.
आ सिवाय बीजी कोई रीते मोक्षमार्ग थतो नथी.
३६. जेणे ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्यो तेना अभिप्रायमां एटली तो द्रढता थई गई के हवे
मारा हितने माटे मारे आ ज्ञानस्वभावनुं ज अवलंबन करवानुं छे, ए सिवाय रागना कोई पण
अंशनुं अवलंबन नथी. तेना निर्णयनी आवी द्रढता तेने परना अवलंबनथी पाछो वाळीने
स्वभावनी सन्मुख लई जाय छे.–आ ज मोक्षमार्गनी रीत छे.
३७. ‘हुं ज्ञान स्वभाव छुं’ एम नक्की कर्युं एटले हवे मारी शांति माटे मारे आ ज्ञाननी ज
सेवा करवानुं रह्युं. अत्यारसुधी ज्ञानस्वभावना निर्णय वगर परभावोने हितरूप जाणीने तेनी सेवा
करी, पण हवे तेनी सेवा अने तेनो आदर छोडीने, ज्ञानस्वभावनो ज आदर कर्यो; ज्ञानस्वभावनी
सन्मुख थईने तेनी सेवा करतां सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र थाय छे.
३८. ज्यांसुधी ज्ञान–स्वभावनो निर्णय न हतो त्यां सुधी मति–श्रुतज्ञान ते स्वभाव तरफ
वळता न हता, पण ईंद्रियो अने मन तरफ ज वळता हता; एटले ते ज्ञानमां आत्मानी प्रसिद्धि थती
न हती, पण ईंद्रियो अने मनना अवलंबनने एकांत परनी ज प्रसिद्धि थती हती, ते ज्ञानो पोतानी
ज्ञानमर्यादाने छोडीने बहार जता हता–रागादिमां एकतापणे अज्ञानभावे वर्तता हता, एटले ते
ज्ञानमां पोतानी मर्यादा रहेती न हती. हवे ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतां तेनो अचिंत्य महिमा
लावीने ते मति–श्रुतज्ञान स्वसन्मुख थाय छे, ईंद्रियो अने मनना अवलंबनथी पाछा वळीने, पर
तरफथी उपयोगने पाछो खेंचीने, ज्ञानने पोतानी मर्यादामां लावे छे, एटले स्वसन्मुख थईने
आत्माने सम्यक्पणे प्रसिद्ध करे छे. आनुं नाम ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे; आनुं नाम धर्म छे,
आमां अपूर्व आत्मशांति छे, ने आ ज मोक्षनो उपाय छे.
३९. ज्ञानीनी मर्यादा ए छे के पोताना स्वभावमां एकाग्रपणे रहे. एक सूक्ष्म विकल्प ऊठे ते
पण ज्ञाननी मर्यादाथी बहार छे. ज्ञाननी मर्यादामां एक सूक्ष्म विकल्पनो पण प्रवेश नथी. ज्यां आवो
निर्णय पण न करे ने विकल्पथी–रागथी लाभ माने ते तो हजी सम्यग्दर्शनना आंगणे पण नथी
आव्यो. अहीं तो सम्यग्दर्शनना आंगणे आवेलो जीव अंर्तस्वभावमां कई रीते ढळे छे तेनी वात छे.
४०. आ वात कोना अंतरमां उत्तरे?–के जेना अंतरमां धर्मनी जिज्ञासा खरी जागी होय ते
जिज्ञासु जीव पोताना हितने माटे आ वात अंतरमां उतारीने ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करे छे;
जगतमां कोई पदार्थोनो कर्ता हुं नथी,–एनाथी तो हुं जुदो छुं–एम समजीने पर तरफनो उत्साह जेने
ओसरी गयो छे; अने रागनी वृत्तिओमां पण मने आकुळतानुं ज वेदन ने अशांति छे, ज्ञानना
वेदनमां ज शांति छे–एम नक्की करीने, राग तरफनो उत्साह पण ओसरी गयो छे ने ज्ञान
ज्ञानस्वभाव तरफना उत्साहनी जेने भरती आवी छे,–एवा जीवना अंतरमां आ वात उतरी जाय छे,
–एटले के तेने शुद्धआत्मानी अनुभूति थाय छे.
४१. चैतन्यस्वभावनो उत्साह छोडीने, रागनो अने परनां कार्योनो उत्साह ते तो संसारमां
रखडवानुं अने दुःखनुं कारण छे.
४२. भाई, पर चीज क््यां आवी अधूरी छे के ते तारी आशा करे? अने तारो आत्मा पण
क््यां एवो अधूरो छे के ते बीजानी आशा राखे? माटे तारी वृत्तिने पर तरफथी पाछी वाळ...ने स्व
तरफ जा. पर तरफना वलणमां अशांति छे, स्व तरफ वळवाथी शांति छे. शांति कहो के धर्म कहो,–तेनी
रीत आ एक ज छे.