वैशाख: २४८६ : १प :
४३. आत्मशांतिना अनुभवनी आ रीतमां वच्चे क्यांय रागनो प्रवेश नथी. पहेलां के पछी
राग हो भले पण ते कांई धर्मनी रीतने मददगार तरीके नथी. शास्त्रभाषाथी कहीए तो, निश्चय साथे
व्यवहार हो भले, पण ते व्यवहार निश्चयने मददगार नथी, तेमज व्यवहार करतां करतां तेना
अवलंबने निश्चय पमाशे–एम पण नथी. भूतार्थ स्वभावना आश्रये ज धर्म थाय छे–ए एक
अबाधित नियम छे. “भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माईट्ठी इवइ जीवो” (जुओ, समयसार गाथा–
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४४. चैतन्यमां अद्भुत आनंदरस भर्यो छे,–तेवो आनंदरस जगतना बीजा कोई पण पदार्थमां
नथी. चैतन्यनो निर्णय करीने तेना आनंदरसमां लीन थतां जगतना बधा पदार्थोमांथी रस ऊडी जाय
छे. जेने जगतना पदार्थोमां रस लागे, तेमां सुख लागे, ते जीव चैतन्यना रसमां केम वळे?
४प. जेने चैतन्यनो रस होय तेने अंतरथी चैतन्यना शांत जळना तरंग ऊछळे. जेम
नाळीएरमां भरेलुं पाणी, छालां, काचलां ने टोपरुं ए त्रणेनी अंदर छे, छतां उपरना त्रणे पडलथी
पार एवा पाणीनो निर्णय नाळिएर खखडावीने नक्की करे छे के आमां पाणी भर्युं छे. तेम आत्मा
चैतन्यरसरूप शांतजळथी भरेलो छे, चैतन्यनो रस जागतां अंदरथी शांतिना तरंग ऊछळे छे. आ जड
शरीर, कर्म अने रागादि भावो ए त्रणे पडल वींधीने तेनाथी पार एवा शांतरसनो निर्णय
जिज्ञासुजीव पोताना वीर्यने उल्लसावीने करी ल्ये छे, ज्ञानने अंतरमां वाळीने ते एवो निर्णय करी ल्ये
छे के मारा आत्मामां ज अतीन्द्रिय आनंदरस भरेलो छे. ते आनंदनो अनुभव करतां आत्मा जाणे के
आखाय विश्वनी उपर तरतो, होय–एम ते अनुभवे छे. आ रीते अनुभवमां भगवान आत्मा प्रसिद्ध
थाय छे, ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे; अने ते ज ‘समयनो सार’ छे.
आ मानवदेहनी कृतार्थता
दुर्लभ एवो मनुष्यदेह पण पूर्वे
अनंतवार प्राप्त थया छतां कंई पण
सफळपणुं थयुं नहि, पण आ मनुष्यदेहने
कृतार्थता छे के जे मनुष्यदेहे आ जीवे
ज्ञानीपुरुषने ओळख्या, तथा ते
महाभाग्यनो आश्रय कर्यो. जे पुरुषना
आश्रये अनेक प्रकारना मिथ्या आग्रह
आदिनी मंदता थई, ते पुरुषने आश्रये
आ देह छूटे ए ज सार्थक छे. जन्म जरा
मरणादिने नाश करवावाळुं आत्मज्ञान
जेमने विषे वर्ते छे, ते पुरुषनो आश्रय
ज जीवने जन्म–जरा–मरणादिनो नाश
करी शके, केमके ते यथासंभव उपाय छे....
श्रीमद् राजचंद्र (वर्ष २९मुं)