Atmadharma magazine - Ank 200
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८६ : ९ :
१४ नी रात पछी–अमासना सुप्रभातमां भगवान वर्द्धमान प्रभुए अभूतपूर्व सिद्धदशा प्राप्त करी....
आत्मस्वाधीनता प्राप्त करी.
(४९) सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निजनिरं–
जनशुद्धात्मश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंद
रूप– सुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं,
....सर्व
विभावपरिणामरहितशून्योऽहं, जगत्त्रये कालत्रयेऽति मनोवचनक यैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्ध–
निश्चयनयेन। तथा सर्वेऽपि जीवा; इति निरंतरं भावना कर्तव्येति।।
(–समयसार–जयसेनाचार्य टीका, तथा परमात्मप्रकाश)
(प०) आत्मानो परम आनंद ते मंगळिक छे...आचार्यदेवे पोते परमानंदने अनुभव्यो छे
अने ‘जगतना जीव पण ते आनंदने पामे’ एवी भावनाथी आचार्य भगवंतोए आवा महान
शास्त्रो रचीने जगतने आनंद तथा परमानंदनी भेट करी छे. भगवाननी वाणी द्वारा पोते परमानंदने
पामीने, ते वाणी भव्यजीवोने परमानंद पामवा माटे भेट करी छे. जेने मोक्षदशा प्रगट करवी होय तेने
ते भेट आपी छे. जगतने आ शास्त्रोद्वारा आचार्योए परमानंदनी भेट आपी छे, आ शास्त्रोनो
अक्षरेअक्षर आत्माना आनंदनुं निमित्त छे.
(प१) यथार्थ वस्तुविज्ञाननुं रहस्य पाम्या विना गमे तेटलो प्रयत्न करवामां आवे, गमे
तेटलां व्रत–नियम–तप–त्याग–वैराग्य–भक्ति–शास्त्राभ्यास करवामां आवे तोपण जीवनो एक पण
भव घटतो नथी, माटे आ मनुष्यभवमां जीवनुं मुख्य कर्तव्य यथार्थ रीते वस्तु–विज्ञान प्राप्त करी
लेवानुं छे. (“वस्तुविज्ञानसार” नी प्रस्तावनामांथी)
(प२) जे चैतन्यनुं लक्षण नथी एवी समस्त बंधभावनी लागणीओ माराथी भिन्न छे....
पोतानी शक्ति द्वारा जेणे बंध रहित स्वभावनो निर्णय कर्यो तेने स्वभावनी होंश अने प्रमोद आवे के
अहो! आ चैतन्यस्वभाव पोते भवरहित छे, तेनो आश्रय कर्यो तेथी हवे भवना अंत नजीक आव्या
अने मुक्तिदशानां नगारां वाग्यां. पोताना निर्णयथी जे निःशंकता करे तेने चैतन्यप्रदेशोमां उल्लास
थाय अने तेने अल्पकाळमां मुक्तदशा थाय ज.
(प३) दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी वृद्धिने अर्थे हे मुनि! दीक्षाप्रसंगनी तीव्र विरतिदशाने, कोई
रोगोत्पत्तिप्रसंगनी उग्र वैराग्य अवस्थाने, कोई दुःखप्रसंगे प्रगटेली उदासीनतानी भावनाने, कोई
सत् उपदेश प्रसंगे थयेली परम आत्मिक भावनाने, कोई पुरुषार्थना धन्य प्रसंगे जागेली पवित्र
अंर्तभावनाने स्मरणमां राखजे, निरंतर स्मरणमां राखजे, भूलीश नहि. (भावप्राभृत)
(प४) हे भाई! बहारना द्रव्योनुं तो जेम थवानुं तेम ज थवानुं, तारा ज्ञाननो स्वभाव तो
जाणवानो ज छे. जुओ तो खरा, आमां ज्ञाननी केटली शांति! ज्ञानने कोई विघ्न करनार नथी अने
कोई मददगार नथी. जेणे आवो ज्ञानस्वभाव स्वीकार्यो तेने अभिप्रायमांथी तो सर्व राग–द्वेष
बंधभाव टळी गया एटले के अभिप्रायथी तो ते मुक्त थयो; हवे ते ज अभिप्रायना जोरे अल्पकाळे
बंधभावोने सर्वथा छेदीने मुक्त थशे.
(पप) जे भव्य जीवने संसार दुःखदायक भास्यो छे ने तेनाथी छूटीने ज्ञानस्वरूपमां
आववानी झंखना जागी छे एवा मोक्षार्थीओने श्री आचार्यदेव आदेश करे छे के, जेमना ज्ञाननो
अभिप्राय उदार छे एवा हे मोक्षार्थी जीवो! तमे एक आज सिद्धातनुं सेवन करो के ‘हुं तो शुद्ध
चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं, ए सिवाय बधाय भावो हुं नथी, ते बधाय भावो माराथी
जुदा छे.’–जेम बाळकना अंतरमां तेनी मातानुं ज रटण होय छे....तेम धर्मी जीवना अंतरमां ‘मारा
सिद्धभगवान, मारी सिद्धदशा’ एम ज रटण थई रह्युं छे. पोताना स्वभाव सिवाय बीजा कोई पण
भावथी तेओ संतोषाता नथी.