: १० : आत्मधर्म: २००
(प६) कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शननुं अपार माहात्म्य छे. गुरुदेवे घणां वर्षो पहेलां राजकोटमां
श्रीमद् राजचंद्रजीनी जयंति प्रसंगे कह्युं हतुं के ‘सम्यग्द्रष्टि बळदनी खरी जे विष्टा उपर पडे ते विष्टा
पण धन्य छे.’ प्रत्येक पदार्थने पोताना स्पर्शमात्रथी धन्य बनावनार सम्यग्द्रष्टि महापुरुषनी
जन्मजयंति उजववानो आजनो प्रसंग आपणा माटे अति आनंदोल्लासनो प्रसंग छे.
(प९मा जन्मोत्सवप्रसंगे विद्वान भाईश्री हिंमतलाल जे. शाहना भाषणमांथी)
(प७) हे मुनि! आत्मा कल्याणस्वरूप छे एमां तुं तारा मनने जोड, तेने छोडीने बहार न जा.
(प८) हे भव्य! तने नकामो कोलाहल करवाथी शुं लाभ छे? ए कोलाहलथी तुं विरक्त था
अने एक चैतन्य मात्र वस्तुने पोते निश्चळ लीन थई देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो–
तपास के एम करवाथी पोताना हृदयसरोवरमां जेनुं तेज, प्रताप, प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा
आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे. (–जरूर थशे ज.)
(प९) तीर्थंकरोनो पंथ स्वाश्रयनो ज छे. तीर्थंकरोना उपदेशमां संपूर्ण स्वाश्रयनो ज आदेश छे.
मोक्षमार्गमां अंशमात्र पराश्रयभाव तीर्थंकरोए उपदेश्यो नथी. जे जीव स्वाश्रय नथी करतो ते जीव
तीर्थंकरोना उपदेशना आशयने समज्यो नथी.–आवो श्री तीर्थंकरोनो पंथ ज्ञानीओ बतावे छे अने
जगतना जीवोने हाकल करे छे के हे जगतना जीवो! मोक्षनो मार्ग आत्माश्रित छे. तमे पराश्रयने
छोडीने आ स्वाश्रितमार्गमां निःशंकपणे चाल्या आवो.
(६०) जीवनुं पोतानुं निजस्वरूप वीतराग छे, वीतराग छे, वीतराग छे; जेओ ते
वीतरागस्वरूपनुं वारंवार कथन करे छे ते ज सदा गुरुपदे शोभे छे. *** श्री गुरु ज्ञानने स्थिरीभूत
करीने पोताना आत्माने तो वीतरागस्वरूप अनुभवे छे, अने ज्यारे कोईने उपदेश पण आपे छे
त्यारे अन्य सर्वे दूर करीने एक जीवनुं निजस्वरूप वीतराग छे तेनुं ज वारंवार कथन करे छे.
वीतरागस्वरूप सिवाय बीजो कोई अभ्यास तेमने नथी. (–आत्मावलोकन)
(६१) श्री कुंदकुंद भगवान भव्य जीवोने मोक्ष माटे आमंत्रण आपे छे; अमारा घरे
मोक्षदशानी रसोई तैयार थई गई छे. अमे तने जे कहीए छीए तेनी हा पाड, तो तुं मोक्षदशा माटेनां
भाणे बेठो छे. भाणे बेठा पछी मोक्षदशानां भोजन आवतां वार नहि लागे. अरे, आव तो खरो! हा
तो पाड! आत्माना स्वभावसुखनो स्वीकार तो कर.
(६२) समुद्रनां पाणीथी पण जेनी तृषा न छीपी तेनी तृषा एक टीपुं पाणीथी तूटवानी नथी;
तेम आ जीवे स्वर्गादि भोग अनंतवार भोगव्या छतां तृप्ति थई नहि, तो सडेला ढींगला समान आ
मानवदेहना भोगथी तेने कदापि तृप्ति थवानी नथी, माटे भोग खातर जिंदगी गाळवा करतां मनुष्य
जीवनमां ब्रह्मचर्य पाळवुं अने तत्त्वनो अभ्यास करवो ते ज मानवजीवननुं उत्कृष्ट कर्तव्य छे.
(६३) हे जीवो! अंदरमां ठरो.....रे...ठरो! अनंत महिमावंत शुद्ध आत्मस्वभावनो आजे ज
अनुभव करो.
(६४) हे भाई! चैतन्य भगवान केवा छे तेने जोवाने एक वार कुतुहल तो कर. जो दुनियानी
अनुकूळता के प्रतिकूळतामां रोकाईश तो तारा चैतन्यभगवानने तुं जोई शकीश नहि, माटे दुनियानुं
लक्ष छोडी दई अने तेनाथी एकलो पडी एक वार महान कष्टे पण तत्त्वनो कौतूहली था.
(६प) अहो! कुंदकुंदाचार्यदेवनी शुं वात करीए? कुंदकुंदाचार्यदेव तो भगवान कहेवाय. एमनुं
वचन एटले केवळीनुं वचन. अंतरमां अध्यात्मना प्याला फाटी गयेला हता. एकदम केवळज्ञाननी
तैयारी हती. वीतरागभावे अंतरमां ठरतां ठरतां वळी छद्मस्थ दशामां रही गया, ने विकल्प ऊठतां
आ समयसारादि महान शास्त्रो रचाई गयां.–एटला वळी जगतना महाभाग्य!