जेठ: २४८६ : ११ :
(६६) आत्मस्वभाव महिमावंत छे, ते मोक्षसुखनो देनार छे, ते स्वानुभवथी जणाय छे पण
वाणीना विस्तारथी जणातो नथी. लाखो–करोडोमां तेने जाणनारा कोईक विरला ज होय छे. आ
जगतमां आवो आत्मा जयवंत छे अने आत्माने जाणनारा पण सदाय होय छे. जो के आत्माने
जाणनारा विरला ज होय छे पण तेनो कदी विरह पडतो नथी; पूर्वे आत्माने जाणनारा हता, अत्यारे
छे ने भविष्यमां थशे.
(६७) जेणे पूर्वे आयुष्य बांध्युं न होय एवा अविरत सम्यग्द्रष्टि पण वैमानिक देव अथवा
उत्तम मनुष्यमां ज जन्मे छे, ए सिवाय बीजे क््यांय जन्मता नथी; तेथी उत्तम देवपणुं अने उत्तम
मनुष्यपणुं–ए बेने छोडीने बाकीना समस्त संसारना कलेशथी ते मुक्त छे, माटे संसारना दुःखोथी
भयभीत एवा भव्यजीवोए सम्यग्दर्शननी आराधनामां सदाय तत्पर रहेवुं जोईए.
(६८) हे भाई! एक वार तुं एम तो मान के ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं....मारुं ज्ञान रागमां
एकमेक थई जतुं नथी. आम राग अने ज्ञाननी भिन्नताने जाणीने एक वार तो रागथी जुदो पडीने
आत्माना ज्ञाननो अनुभव कर. तारा ज्ञानसमुद्रमां एक वार तो डुबकी मार.
(६९) आत्मा तणा आनंदमां मशगुल रहेवा ईच्छतो, संसारना दुःखदर्दथी झट छूटवाने
ईच्छतो; आपो अनुपम आशरो प्रभु दीनबंधु देव छो, शरणे हुं आव्यो आपने तारो प्रभो तारो मने.
–बाळकोना संवादमांथी
(७०) अत्यारे लोकोमां जैनधर्मना नामे जे वात चाली रही छे तेमां मूळथी ज फेर छे. मूळ
आत्मस्वभावनी द्रष्टि वगर शास्त्र वगेरेथी हजारो वातो जाणे पण तेमां एकेय वात साची होय नहि.
पूर्वनी मानेली बधी वातना मींडा वाळीने सांभळे तो आ वात अंतरमां बेसे तेम छे.
(७१) तुं तारा ज्ञानमां एम निर्णय कर के मारुं ज्ञानस्वरूप बधाय पदार्थोथी जुदुं छे...तारा
ज्ञानस्वरूप आत्मा तरफ वळ, तेनो ज अभ्यास कर, तेनी रुचि कर, तेनुं मंथन कर, तेनी श्रद्धा कर,
तेनो ज अनुभव कर. निरंतर ते ज एक करवा जेवुं छे.
विकल्पो ते परद्रव्य छे, अने ए सात तत्त्वोना विकल्पोथी अगोचर जे शुद्ध अभेद आत्मस्वरूप छे ते
ज एक स्वद्रव्य छे, ते ज जीव छे, अने एने ज अंगीकार करवानो छे. शुद्ध जीवने अंगीकार करवाथी
शुद्धभाव प्रगटे छे. अंगीकार करवो एटले तेनी श्रद्धा करावी, तेनुं ज्ञान करवुं अने तेमां लीन थवुं.
(७३) श्री मुनिराज निःस्पृह करुणाबुद्धिथी कहे छे के अरे प्राणीओ! आत्मानो शुद्धस्वभाव
समज्या वगर अनंतकाळमां बीजा बधा भावो कर्या छे, ए कोई भावो उपादेय नथी. आत्मानो
निश्चयस्वभाव ज उपादेय छे, एम तमे श्रद्धा करो.
(७४) परम पारिणामिक भावरूप निरपेक्ष चैतन्यस्वभाव बतावीने श्री आचार्यदेव कहे छे के
हे भाई! तुं आवा शुद्ध जीवतत्त्वनी श्रद्धा कर....अशुद्ध आत्मानी श्रद्धा तो तें अनंतकाळथी करी छे
अने ते मिथ्याश्रद्धाने लीधे ज तुं संसारमां रखडी रह्यो छे. माटे हवे–“ परम शुद्ध आत्मा ते ज हुं”
एवी शुद्धात्मानी श्रद्धा कर, तो तारा आत्मामां शुद्धभाव प्रगटे अने तारुं अविनाशी कल्याण थाय.
(७प) अहो, आजे महावैराग्यनो दिवस छे, परम उदासीनतानो प्रसंग छे....आजे भगवान
वीतरागी चारित्र दशा धारण करे छे. आ आत्माने पण एवी चारित्रदशा वगर मुक्ति नथी....आवा
प्रसंगे पोते अंतरमां एवी भावना करे के मने एवी परम वीतरागी निर्ग्रंथ दशा क््यारे आवे! हुं
क््यारे मुनि थईने