: १२ : आत्मधर्म: २००
आत्मध्यानमां लीन थाउं? हुं क््यारे ए वीतरागी संतोनी पंक्तिमां बेसुं?
(–दीक्षा कल्याणक प्रवचनमांथी)
(७६) एक मात्र भेदज्ञान सिवाय जीव अनंत काळमां बधुं करी चूक््यो छे, पण भेदज्ञान कदी
एक सेकंड मात्र पण प्रगट कर्युं नथी. एक सेकंड मात्रनुं भेदज्ञान अनंत जन्ममरणनो नाश करनार
छे–माटे ते भेदविज्ञान निरंतर भाववायोग्य छे.
(७७) हे प्रभाकर भट्ट! तुं मिथ्यात्वादि शल्य रहित थईने तारा आत्माने परमात्मा जाण.
परमात्मानुं ध्यान करवानुं कह्युं छे ते पोताथी भिन्न परमात्मानुं नहि, पण परमात्मानी जेम पोतानो
स्वभाव परिपूर्ण रागादि रहित छे तेने ओळखीने तेनुं ज ध्यान करवुं, ते ज परमार्थे परमात्मानुं
ध्यान छे.
(७८) हे जीव! तुं तारा आत्माने ओळखीने सर्वात्ममां समद्रष्टि कर! कोईना प्रत्ये
विषमभाव राखीने तारे शुं प्रयोजन छे? सामो जीव एने भावे तरे छे अने एना जोखमे बूडे छे, तुं
तारामां समभाव राख.
(७९) धर्म धर्मात्माओ विना होतो नथी. जेने धर्मनी रुचि होय तेने धर्मात्मा प्रत्ये रुचि होय
ज. धर्मी जीवो प्रत्ये जेने रुचि नथी तेने धर्मनी ज रुचि नथी. जेने धर्मनी रुचि छे तेने...बीजा
धर्मात्माओ प्रत्ये अणगमो के अदेखाई न होय....पण अंतरथी प्रमोद जागे के अहा! धन्य छे आ
धर्मात्माने! तेने बीजा धर्मात्माओने जोईने हरख आवे छे.
(८०) धर्मी जाणे छे के जगतना कोई संयोगो मने ईष्ट–अनिष्ट नथी, हुं तो असंयोगी, राग–
द्वेष रहित ज्ञायक मुक्तस्वरूप छुं.–आवी स्वभावद्रष्टिमां पूर्वकर्मरूपी चोर मने कांई करवा समर्थ नथी.
(८१) जे पुरुष आ शुद्धात्माने ओळखीने तेना ध्यानमां स्थिर रहे छे तेनी वात तो दूर रहो;
परंतु जे पुरुष शुद्धात्मानी चिंतानो परिग्रह करवावाळो छे तेनुं पण जीवन आ संसारमां प्रशंसनीय
छे; तथा देवोद्वारा पण ते पूजाय छे, माटे भव्य जीवोए सदा शुद्धात्मानुं चिंतन करवुं जोईए.
(८२) जेनां अहोभाग्य होय तेने आ तत्त्व सांभळवानुं प्राप्त थाय. अने अपूर्व पात्रताथी
आत्मपुरुषार्थ करे तो परमार्थनी प्राप्ति थाय.....ज्ञान स्वभावी आत्मानी रुचि करवी ते ज कल्याणनो
पंथ छे. स्वतंत्र रुचि पलटाववानी वेदना पोते न करे तो कोई कराववा समर्थ नथी.
(८३) भादरवा सुद पांचमथी चौदस सुधीना दस दिवसोने ‘दसलक्षणी’ कहेवाय छे. सनातन
जैनशासनमां एने ज पर्युषण पर्व कहे छे. शास्त्रोमां तो दसलक्षणी पर्व वर्षमां त्रण वार आववानुं
वर्णन छे, परंतु वर्तमानमां भादरवा मासमां ज तेनी प्रसिद्धि छे. वीतरागी जिनशासनमां आ धार्मिक
पर्वनो अपार महिमा छे.
(८४) जेमां खरेखर सुख होय तेमां गमे तेटलुं आगळ ने आगळ जतां क््यारेय पण कंटाळो
न आवे; स्वभावमां सुख छे तो तेमां जेम जेम आगळ वधे छे तेम तेम सुख वधे छे.....तेमां कंटाळो
आवतो नथी. ने विषय–सुखोमां कंटाळो आव्या विना रहेतो नथी.....विषयोमां सुख नथी पण
आत्मस्वभावमां ज सुख छे.–ए स्वभावसुख नक्की करीने तेनी हा पाड, ने विषयोमां सुखनी बुद्धि
छोड.
(८प) हे जीव! ......तारा आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने–निर्णय करीने, आत्मस्वभाव केवो छे
ते संभळावतां आचार्यदेव मोक्षनी मंडळी उपाडे छे. तुं पण आत्मानी रुचिथी हकार लावीने मोक्षनी
मंडळीमां भळी जा.
(८६) बूंगियो ढोल सांभळीने साडात्रण करोड रोमरोममां रजपूतनुं शौर्य उछळी जाय छे, तेम
तत्त्वनो महिमा सांभळतां पात्र चैतन्यनुं वीर्य उछळी