: ८ : आत्मधर्म: २००
प्रतीतरूप सम्यग्दर्शन थशे. ए सम्यग्दर्शन पोते कल्याणस्वरूप छे अने ए ज सर्व कल्याणनुं मूळ छे.
ज्ञानीओ सम्यग्दर्शनने ‘कल्याणनी मूर्ति’ कहे छे माटे हे जीवो! तमे सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट
करवानो अभ्यास करो....हे जीव! सर्वज्ञना धर्म सिवाय आ जगतमां कोई शरणभूत नथी, माटे
सर्वज्ञदेवे कहेला आत्मस्वभावनुं आराधन कर.
(४१) अरे भाई! तुं लोकसंज्ञा छोडीने स्वतत्त्वनो आदर कर. लोक गमे तेम बोले, तुं
आदर सिवाय अन्य कोई शरणभूत नथी, माटे दुनियानी दरकार छोडीने आत्माना कल्याणनो मार्ग ले.
(४२) “आत्मार्थी श्री कानजी महाराज द्वारा दि० जैन धर्मनुं जे संरक्षण अने संवर्ध्धन थई
रह्युं छे तेनुं विद्वत् परिषद श्रद्धापूर्वक अभिनंदन करे छे....आ अवसर पर अभिनंदन अने स्वागतनी
साथे साथे परिषद ए पण घोषित करे छे के, जे तेओश्रीनुं कर्तव्य छे ते अमारुं ज छे तेथी आ
प्रवृत्तिमां अमे तेमनी साथे छीए.
(–त्रीजा अधिवेशन वखते भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषदे करेल प्रस्तावमांथी.)
(४३) जेम एक गुफामां छ मुनिराज बहु काळथी रहे छे परंतु कोई कोईथी मोहित नथी,
उदासीनता सहित एक क्षेत्रमां रहे छे; तेवी ज रीते छ द्रव्यो एक लोकरूपी क्षेत्रमां जाणवा. लोकरूपी
गुफामां छए द्रव्यो वीतरागी मुनिओनी माफक एकबीजाथी निरपेक्षपणे रहेलां छे, कोई द्रव्य अन्य
द्रव्यनी अपेक्षा राखतुं नथी.
(४४) भले आजे भरतक्षेत्रमां बार अंग, चौद पूर्वना ज्ञाता विद्यमान नथी तो पण बार
अंग अने चौद पूर्वनुं एक मात्र प्रयोजन जे शुद्धात्मानुं ज्ञान तेना धारक श्रुतज्ञानीओ तो आजे पण
विद्यमान छे...बार अंग, चौद पूर्वना ज्ञाता श्रुतज्ञानीओ जेवा शुद्धात्माने जाणता हता तेवा ज
शुद्धात्मानुं ज्ञान आजे पण थई शके छे, माटे भव्य जीवो अंतरंगमां प्रमोद करो के आज पण सत्श्रुत
जयवंत वर्ते छे
(४प) “निर्मलात्मसिध्धिस्तु” श्री चारणमुनिओना आवा महापवित्र आशीर्वाद पामीने ते
वखते धर्मात्मा भरतना हृदयमां केटलो आह्लाद थई गयो हशे–ए तो परमात्मा ज जाणे. अहा! आ
प्रसंगे आत्मार्थीओनो उल्लास अंतरमां केम शमाय? ए वखते तो, जाणे साक्षात् मुक्ति ज पोताना
हाथमां आवी गई होय एवा प्रकारे भरतजी नाचवा मांडया, ए ठीक ज छे, केमके धर्मात्माओने
जगतना कोई पण पदार्थो करतां पोतानी पवित्र दशानी प्राप्ति माटेनो उल्लास अपूर्व होय छे.
* स्वतंत्रता त्यां यथार्थता; ने यथार्थता त्यां वीतरागता; वस्तुस्वभाव स्वतंत्र छे, ते
स्वतंत्रतानी प्रतीतमां ज्ञाननी यथार्थता छे अने ते यथार्थतामां वीतरागता छे.
(४६) हे शिवपुरीना पथिक! प्रथम भावने जाण. भाव रहित लिंगथी तारे शुं प्रयोजन छे?
शिवपुरीनो पंथ जिन भगवंतोए प्रयत्नसाध्य कह्यो छे.
(४७) हे जीव! तें आत्माने भूलीने देहद्रष्टिथी तो अनंत जीवन वीताव्या अने तेनी पाछळ
पण तारुं भवभ्रमणनुं दुःख तो ऊभुं ज रह्युं; पण हवे सत्पुरुषोनी आज्ञामां आत्मद्रष्टिथी एक जीवन
तो एवुं गाळ के जेनी पाछळ भव ज धारण करवो न पडे.
(४८) दिपावलीनुं मंगळमय पर्व ते आत्मिक स्वाधीनतानो उत्सव छे. आत्मस्वाधीनता तेने
कहेवाय के जेमां आत्मा स्वयं संपूर्ण सुखी होय. एवी संपूर्ण स्वाधीनता प्रातःस्मरणीय श्री
सिद्धभगवंतोने छे....सिद्ध दशा ते ज संपूर्ण आत्मस्वाधीनता छे. एवी आत्मस्वाधीनतानी धन्य
घडीनो महोत्सव करवो ते स्वाधीनतानो साचो उत्सव छे. आसो वद