Atmadharma magazine - Ank 200
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८६ : ७ :
(३३) सौराष्ट्रदेशमां गिरनार पर्वतनी चन्द्रगुफामां महामुनि श्री धरसेनाचार्यदेव बिराजता
हता...शुभ स्वप्न जोईने तेओ संतुष्ट थया अने उत्साहमां एवुं वाक््य बोल्या के “जय
हो श्रुतज्ञाननो” ते ज दिवसे बे मुनिओ आवी पहोंच्या अने वंदन करी विनयपूर्वक आज्ञा मागी.
धरसेनाचार्यदेवे तेमनी परीक्षा करी अने पछी संतुष्ट थतां, सर्वज्ञपरंपराथी चाल्युं आवतुं श्रुतज्ञान
तेमने आप्युं.
(३४) ‘स्वरूपनो अनुभव कठण छे’ एम माननार बहिरात्मा छे. ज्यारे नवराश मळे त्यारे
परनी वात होंशथी करे छे पण ते वखते स्वभावनी वात करे तो कोण रोके छे? ऊंधा भाव करी रह्यो
छे ते भावमां तने प्रतिकूळ संयोगो नथी नडता अने स्वरूपनी समजणना सवळा भाव करवामां तने
प्रतिकूळ संयोगो नडे छे?–वाह! पोताने आत्मानी दरकार नथी तेथी संयोगनो दोष काढे छे.
(३प) सम्यग्दर्शन आ जगतमां सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी चीज छे. सम्यग्दर्शननो अपूर्व महिमा
छे. अहा! आ वात सांभळीने कया जीवने उत्साह न जागे? प्रद्युम्नकुमारने जोईने तेनी साची जनेता
रुकिमणीने स्तनमां दूध ऊभराणां तेम साचा जिज्ञासु जीवोने पोताना सम्यग्दर्शननी वात सांभळता
रुंवाटे रुंवाटे(–प्रदेशे प्रदेशे) उत्साह चडे अने यथार्थ निर्णय करीने ते सत्य निर्णयना जोरे केवळज्ञान
सन्मुख पुरुषार्थ करे.
(३६) प्रभु! आ मोंघेरा अवसर मळ्‌या अने जो आ वखते सतनी ओळखाण अने बहुमान
नहि कर तो असत्ना पे्रमे तारो आत्मसूर्य अस्त थई जशे.....भाई, प्रथम तारा आत्मस्वभावनी
ओळखाण करवानुं ज कहेवाय छे.....माटे तुं कोई पण उपाये खूब प्रयत्न करीने पण तारा सतने
समज. जुओ तो खरा, ज्ञानीओनी करुणा! आवो उपदेश सांभळीने, जेने आत्मानी रुचि–बहुमान
होय तेने ज्ञानी प्रत्ये भक्ति ऊछळ्‌या वगर केम रहे? .......हे नाथ? जो तारा चरणनी भक्ति न होत
तो आ जगतना जीवोनो जन्म–मरणथी उद्धार केम थात?
(३७) “आज पवित्र आत्मा श्री महावीर प्रभुजी सदाने माटे संसारथी मुक्त थईने
अभूतपूर्व सिध्धदशा पाम्या अने श्री गौतमप्रभु केवळज्ञान पाम्या”–ए सांभळीने कया मुमुक्षुनुं हैयुं
आनंदथी न नाची ऊठे!! ....जे भव्यात्माओए आत्मामां शुद्ध सम्यग्दर्शनादि प्रकाश प्रगटावीने
सिध्धदशा सन्मुख पुनित पगलां मांडया छे तेओ पण धन्य छे.....जेमना पवित्र आत्मामां शुध्ध
सम्यग्दर्शनरूपी वेणला वाया छे तेओ भावना करे छे के अहो, धन्य ते काळ अने धन्य ते भाव!
मारा आत्मामां केवळज्ञान प्रगट थवानां परोढिया थई गया छे.
(३८) लोको बोले छे के क्रियाथी धर्म थाय; पण कोनी क्रिया? अने कई क्रिया?–जडनी क्रिया के
चेतननी क्रिया? अने विकारी क्रिया के अविकारी क्रिया? जडनी क्रिया, विकारी क्रिया अने अविकारी
क्रिया तेना स्वरूपनुं जेने भान नथी ते धर्मनी क्रिया क््यांथी करशे? मुक्तिनी क्रियामां पर साथे तो
संबंध नथी अने पर तरफना वलणथी जे भाव थाय तेनी साथे पण संबंध नथी.....स्वभावनी श्रद्धा–
ज्ञान–स्थिरतामां टकी छे ते ज अविकारी क्रिया छे, ते धर्म छे, ते मोक्षनी उत्पादक छे......
सींचन मळतां, साचुं तत्त्वज्ञान घेर घेर मळतुं, अने ते आत्माओ पण कुमारवयथी ज तत्त्वना प्रेमीओ
हता, तत्त्वज्ञान ए तेओना जीवननुं मुख्य अंग हतुं.....आजे पण आ भरतक्षेत्रमां फरीथी धोरी
धर्ममार्गना सुप्रभातनो उदय थाय छे.
(४०) हे जीवो! जो तमे आत्मकल्याणने चाहता हो तो स्वत: शुध्ध अने समस्त प्रकारे
परिपूर्ण आत्मस्वभावनी रुचि अने विश्वास करो, तेनुं ज लक्ष अने आश्रय करो....तेना आश्रये,
लक्षे पूर्णतानी