Atmadharma magazine - Ank 200
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म: २००
निर्णय करी ज्ञानमां लावो...जे सत्पुरुष छे तेमणे पोताना कल्याण अर्थे सर्व सुखनुं मूळ कारण जे
आप्त अर्हंत् सर्वज्ञ तेनो युक्तिपूर्वक सारी रीते सर्वथी प्रथम निर्णय करी आश्रय लेवो योग्य छे...
सर्वथी प्रथम अर्हंत् सर्वज्ञनो निर्णय करवारूप कार्य करवुं–ए ज श्री गुरुनी मूळ शिक्षा छे.
(२प) जे आ महावीर भगवाननो निर्वाण कल्याणक ऊजववानुं वास्तविक स्वरूप दर्शाव्युं छे
ते प्रमाणे समजीने जे पोतानुं स्वरूप प्रगट करशे ते मुक्तिने पामशे. भगवान महावीरना आत्मानुं
स्वरूप छे तेवुं ज बधा आत्मानुं स्वरूप छे.
(२६) अहीं आखो आत्मस्वभाव प्रसन्न थाय छे; कोने प्रसन्न थाय छे?–जे जीवे.....परिपूर्ण
स्वभावनो....निर्णय कर्यो ते जीवने स्वभाव प्रसन्न थाय छे. ज्यां स्वभावने निर्णयमां लीधो त्यां स्वभाव
प्रसन्न थईने कहे छे के माग! माग! जे दशा जोईए ते आपवा तैयार छुं. पूर्ण सिद्ध पद माग! हुं आ ज
क्षणे ते तने दउं.–आ रीते जे पर्यायरूपे पोते थवा मागे ते पर्याय स्वभावमांथी प्रगटी शके छे.
(२७) “महाराजजी मेरे आनंदका पार नहि है, आप तो श्री वीरभगवान और कुन्दकुन्द
आचार्यका मार्ग प्रकाशीत कर रहा हो, मेरा आनंदकी क्या बात करुं! आपकी पास तो मोक्ष
जानेका सीधा रस्ता है।
” –ईंदोरना सर हुकमीचंदजी शेठ.
(२८) सर्वज्ञ भगवानना केवळज्ञाननो निर्णय करनारना ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ आवी ज
जाय छे...केवळज्ञानने कबुलवामां अनंत पुरुषार्थनी अस्ति आवे छे छतां कबुलतो नथी तो तुं मात्र
वातो ज करे छे पण तने सर्वज्ञनो निर्णय थयो नथी. जो सर्वज्ञनो निर्णय होय तो पुरुषार्थनी अने
भवनी शंका न होय; साचो निर्णय आवे अने पुरुषार्थ न आवे तेम बने ज नहीं.
(२९) स्वरूपलीन थयेला साधक संत मुनिने परिषहनुं जराय दुःख नथी, ए तो परम सुखी
छे....आत्माना चैतन्यनी प्रेरणाना अमृतझरणां पी रह्या छे....आत्मानुं सुख अनुभववामां तेओ
एवा लीन छे के शरीरनुं लक्ष नथी, अनंत सिद्धोनी पंक्तिमां बेसीने आत्माना अमृतनो आनंद
भोगवी रह्या छे.....वंदन हो ते साधक संतमुनिने.
(३०) कुंदकुंद भगवान पडकार मारीने चेतावे छे के भाई रे! ध्यान राखजे, स्वभावनी
साधकदशामां वच्चे राग आवी पडशे खरो, मुनिदशामां पण विकल्प ऊठशे खरो, पण तेने साधन न
मानीश, तेनी होंश न करीश, ते बाधक छे, तेने बाधकपणे जाणीने छोडी देजे अने निश्चय स्वभावना जोरे
आगळ पगलां भरजे; एटले के निश्चय स्वभावनी द्रष्टिना जोरे ज तारी पर्याय क्रमेक्रमे शुद्ध थती जशे.
(३१) शुभभाव ते धर्मनुं पगथियुं नथी, पण सम्यक् समजण ते ज धर्मनुं पगथियुं छे.
केवळज्ञानदशा ते संपूर्ण धर्म छे अने सम्यक् समजण ते अंशे धर्म (श्रद्धारूपी धर्म) छे, ते श्रद्धारूपी
धर्म ए ज धर्मनुं पहेलुं पगथियुं छे. आ रीते धर्मनुं पगथियुं ते धर्मरूप ज छे, पण अधर्मरूप एवो
शुभभाव ते कदापि धर्मनुं पगथियुं नथी....भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के ‘
दंसणमूलो धम्मो
धर्मनुं मूळ दर्शन छे.
(३२) आचार्य कहे छे के, ज्यारे अमारे स्वरूपमां समाई जवाना, विकल्प तोडीने स्थिर थवाना
अवसर आव्या अने तुं संसारना भ्रमणथी थाकीने अमारी पासे आव्यो त्यारे बीजुं बधुं भूलीने अमारो
अनुभव समजी ले. प्रथम धडाके एक वात सांभळी ले के तुं ज्ञायकस्वरूप छो, मुक्त ज छो. तारा स्वतंत्र
स्वभावनी हा लाव...एक वार जुदा चैतन्यस्वभाव समीप आवीने अंर्तद्रष्टिथी जो अने श्रद्धा कर! ते
ज सम्यग्दर्शन छे. मुक्तस्वभावनी हा पाडी, अंदरथी ऊछळीने सत्नो आदर कर्यो ते श्रद्धा ज मोक्षनुं
बीज छे. स्वप्नदशामां पण ते ज विचार, तेनो ज आदर अने तेना ज दर्शन थया करे.