Atmadharma magazine - Ank 200
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८६ : प :
(१प) सर्वज्ञ परमात्मा जिनेश्वर अरहंतदेवनो सेवक थवा माटे आखी दुनियाने मूकी देवी पडे
एटले के जगतनी दरकार छोडी देवी पडे. आखा जगतनी प्रतिकूळता आवी पडे तोय भगवान अरहंत
देवनी श्रद्धा अने भक्ति न छोडाय. अरिहंतदेवनो सेवक थयो, हवे अरहंतपद लीधे ज छूटको
अरहंतनो भक्त भीडने भाळतो ज नथी.
(१६) मोक्षमार्ग तेनुं नाम के आत्मभान सहित आत्मानी स्थिरतामां रही आगळ वधे; ते
मोक्षमार्ग कहो, अमृतमार्ग कहो, के स्वरूपमार्ग कहो. जेओ प्रभु थया तेओ बहारना साधनथी नथी
थया, पण अंर्तस्वरूपना सामर्थ्यथी थया छे. बधा आत्मा शक्तिपणे प्रभुस्वरूप छे, जे पोतानी
प्रभुताने ओळखे ते प्रभु थाय.
(१७) श्री जिनदेव केवळज्ञान–शरीरी छे. (पृ. १)
सिद्धभगवान शिवस्वरूप छे. (पृ २)
श्रुतदेवी माता (अंबा) सदा चक्षुष्मति अर्थात् जागृतचक्षु छे. (पृ. ३)
गणधरदेव समुद्रने लोको नमस्कार करो. (पृ. ३) (कषायप्राभृत–जयधवला पु: १)
(१८) जो एम कहेवामां आवे के केवळज्ञान असिद्ध छे, तो तेम पण नथी; केमके स्वसंवेदन
प्रत्यक्षद्वारा केवळज्ञानना अंशरूप ज्ञाननी निर्बाधपणे उपलब्धि थाय छे, अर्थात् मतिज्ञानादिक
केवळज्ञानना अंशरूप छे अने तेनी उपलब्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी सर्वेने थाय छे, तेथी केवळज्ञानना
अंशरूप अवयव प्रत्यक्ष छे माटे, केवळज्ञान–अवयवीने परोक्ष कहेवुं युक्त नथी.
(–कषायप्राभृत–जयधवला पु: १ पानुं ४४)
(१९) अहा! संतोए मार्ग सहेला करी दीधा छे. आत्मतत्त्वना भान विना तुं शुं करीश,
भाई!–जेनाथी जन्ममरणनां अंत न आवे ने आत्मतत्त्वनी स्वाधीनता न खीले ए ते कांई आचरण
कहेवाय? “हुं अने तुं सरखा”–बोल! आ वात बेसे छे? जो कहे ‘हा’–तो हाल्यो आव!
(२०) श्री रत्नकरंड श्रावकाचारनी २६मी गाथामां श्री समन्तभद्राचार्ये कह्युं छे के‘न धर्मो
धार्मिकैर्विना’ (–धर्म धर्मात्मा वगर होतो नथी.) जेने आत्मानो धर्म रुच्यो छे तेने ज्यां ज्यां धर्म
जुए त्यां त्यां प्रमोद अने आदरभाव आव्या वगर रहे नहि....तेने बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये अणगमो
के अदेखाई न होय.
(२१) “महाराजजीका यह अद्भुत तत्त्वज्ञान तमाम दुनियामें सब भाषामें प्रचार होवे
ऐसी हमारी भावना है, और हिंदी भाषाका बहोत प्रचार है इसलिये महाराजजीका वचनका
गुजरातीमें जो पत्र नीकलता है और उनका जो हिंदीमे कोपी नीकलता है उनका प्रचारके लिये
रू १००१
) मैं मदद करता र्हूं।।” –इंदोरना सर हुकमीचंदजी शेठ.
(२२) अहो समयसार! तारा माहात्म्य कई रीते करीए? अरे, आ चांदीनी तो शुं किंमत?
पण सुर्वणना पानां करीने तेमां रत्नोना अक्षरो लखुं तोय तारां मूल्य न अंकाय....आत्माना स्वरूपनी
ओळखाण थाय तो ज तेनो यथार्थ महिमा समजाय, अने त्यारे ज आ समयसारनी किंमत समजाय.
(२३) घणा जिज्ञासुओने आ ज प्रश्न ऊठे छे के धर्म माटे प्रथम शुं करवुं? तेथी कह्युं छे के
प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनवडे आत्मानो निर्णय करवो....जेणे स्वभावना लक्षे श्रुतनुं अवलंबन
लीधुं छे ते अल्पकाळमां आत्मानुभव करशे ज. हुं तो स्वाधीन ज्ञानस्वभावी छुं–आम जेणे निर्णय
कर्यो तेने अनुभव थया वगर रहेशे ज नहि. अहीं शरूआत ज एवी जोरदार उपाडी छे के पाछा
पडवानी वात ज नथी.
(२४) तमारे जो पोतानुं हित करवुं छे तो सर्व आत्महितनुं मूळ कारण जे आप्त तेना
स्वरूपनो साचो