: ४ : आत्मधर्म: २००
४. ते नुकशान तारी क्षणिक अवस्थामां थयुं छे, तारी वस्तुमां नथी थयुं.
प. तारी चैतन्यवस्तु धु्रव अविनाशी छे माटे ते धु्रवस्वभाव तरफ लक्ष (द्रष्टि) दे,
तो शुद्धता प्रगटे, नुकशान टळे ने अटळ लाभनो धंधो थाय.
(प) अखंड चैतन्यमूर्ति ज्ञायक स्वभाव ए ज हुं छुं, ज्ञान सिवाय मारो स्वभाव नथी.
(६) दिगंबर जैन धर्म ते ज वास्तविक जैनधर्म छे अने आंतरिक तेमज बाह्य दिगंबरता
विना कोई जीव मोक्ष पामी शके नहि.
(७) समस्त संसार अने संसार तरफना वलणना भावथी हवे अमे संकोचाईए छीए, अने
चिदानंद धु्रवस्वभावी एवा ‘समयसार’ मां समाई जवा मांगीए छीए; बाह्य के अंर्त संयोग स्वप्ने
पण जोईतो नथी...बहारना भाव अनंतकाळ कर्या. हवे अमारुं परिणमन अंदर ढळे छे.... अप्रतिहतभावे
अंर्तस्वरूपमां ढळ्या ते ढळ्या, हवे अमारी शुद्धपरिणतिने रोकवा जगतमां कोई समर्थ नथी.
(८) पोताना वीतराग स्वरूपना भानसहित जिनबिंबदर्शनथी निध्धत्त अने निकाचीत कर्मनो
पण भांगीने भूक्को थई जाय छे–जेम वीजळीना पडवाथी पर्वतना भांगीने भूक्का थई जाय छे तेम
आत्माना पुरुषार्थ पासे कर्मनो भांगीने भूक्को ज थई जाय छे.
(९) सुखस्वरूपना भान विना कोई काळे कोई क्षेत्रे कोईने पण सुख होई शके नहि. आत्मा
पोताना दुःखरहित सुखस्वरूपने जाणतो नथी, एटले पोतानुं सुख परथी (परना आधारे) माने छे,
ते मान्यता ज दुःखनुं मूळ छे.
(१०) ‘एक वार हा तो पाड!’ अनंता ज्ञानीओ कहे छे के ‘तुं प्रभु छो.’ प्रभु! तारा
प्रभुत्वनी एक वार हा तो पाड! एक वार अंदर डोकियुं कर तो तने तारा स्वभावना कोई अपूर्व
परम सहज सुखनो अनुभव थशे.
(११) “हुं आत्मतत्त्व एक क्षणमां अनंत पुरुषार्थ करी अनंतकाळनी मुंझवण तोडनार छुं,
कारण के हुं अनंतवीर्यनी मूर्ति छुं,–एम जेने बेसे तेने अनंत संसार होतो नथी.
(१२) आजे श्रुतपंचमी! आजे ज्ञाननी आराधनानो दिवस छे. आचार्य भगवान कहे छे के
‘अमारुं कार्य तो एटलुं हतुं के विकल्प तोडीने सातमे गुणस्थाने स्वरूपनी रमणतामां जोरपूर्वक ठर्या,
त्यांथी पाछा छठ्ठे आववानी वात ज न हती. सीधी वीतरागता ज! छठ्ठे आव्या तेनो खेद छे.’ अहा!
जुओ तो खरा दशा! जाणे साक्षात् वीतरागनी वाणी! वात काने पडतां अंदर झणझणाट थई जाय छे.
के जाणे केवळज्ञान आव्युं!
* जेठ सुद पांचम ए ‘श्रुतपंचमी’ नो दिवस मुमुक्षु जीवोने माटे महामांगळिक छे....श्री
भूतबलिआचार्यदेवे चतुर्विध संघनी साथे (अंकलेश्वरमां) श्रुतज्ञाननी पूजा करी तेथी ते दिवस
जैनोमां श्रुत पंचमी तरीके प्रख्यात छे....आ तीर्थंकर केवळज्ञानीनी वाणी केवळज्ञानना ज भणकार
करती आवी छे.
(१३) हवे सावधान था.....सावधान था....सर्वज्ञ जिनप्रणीत धर्मने अंगीकार कर.....भाई रे!
तुं उत्तम जीव छो, तारी मुक्तिनां टाणां नजीक आव्या छे तेथी ज श्री गुरुओनो आवो उपदेश तने
प्राप्त थयो छे. अहा! केवो पवित्र निर्दोष अने मधुर उपदेश छे! आवा परम हितकारी उपदेशने कोण
अंगीकार न करे?–जेने दुनियाथी पार थवुं छे, जन्म–मरण रहित थवुं छे ने आत्मस्वरूपनी जेने
दरकार छे ते तो आ वात जरूर मानवाना.
(१४) माता! कोलकरार करीए छीए के हवे बीजो भव के बीजी माता करवाना नथी. माता! एक
तने दुःख थशे, हवे बीजी माता नहि रोवडावीए, अमे अशरीरी सिद्ध थई जशुं.–हे माता! रजा आप.