: १४ : आत्मधर्म: २००
अने ए ज दरेक आत्मार्थी–मोक्षार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे.
(९६) अहो! स्वभावद्रष्टिनी आ वात अत्यारे लोकोने बहु मोंघी थई पडी छे, पण
जैनधर्मनो मूळ पायो ज आ छे. आवी द्रष्टि प्रगट कर्या वगर जेटलुं करे ते बधुंय संसारनुं ज कारण
थाय छे; आ द्रष्टि वगर मोक्षमार्गनी शरूआतनो अंश पण थतो नथी.
(९७) वीर. सं. २४७७ना बेसतावर्षना सुप्रभातना मंगल सन्देशमां पू. गुरुदेवश्रीए कह्युं
हतुं के: आत्माना परम पारिणामिक–स्वभावनो महिमा करवो ते आत्मानुं मंगल बेसतुं वर्ष छे.....ते
स्वभावमांथी ज बधी निर्मळ पर्यायो आवे छे; माटे तेनो महिमा...तेनी रुचि....ने तेमां सन्मुख थईने
लीनता ए ज आत्मार्थी जीवोनुं कर्तव्य छे.
(९८) श्री समयसारनी शरूआतमां ज आचार्यदेव आत्मामां सिद्धपणुं स्थापे छे: अहो, सिद्ध–
भगवंतो! मारा हृदयस्थानमां बिराजो. हुं सिद्धोनो आदर करुं छुं.–आम पोताना आत्मामां सिद्धपणुं
स्थापवुं ते धर्मनी अपूर्व मंगल शरूआत छे.
(९९) सम्यग्दर्शन प्रगट करनार जीवने देशनालब्धि जरूर होय छे; अने ते देशनालब्धि,
सम्यक्त्वरूपे परिणमेला एवा साक्षात् ज्ञानीना निमित्ते ज पमाय छे. एकला शास्त्रथी के कोई
मिथ्याद्रष्टिना निमित्तथी देशनालब्धि पमाती नथी.
(१००) सम्यग्दर्शन प्रगट थतां आत्मानो अनुभव थाय छे. जेवो सिद्धभगवानने अनुभव
होय छे तेवो चोथे गुणस्थाने समकिती जीवने अनुभव होय छे. सिद्धने पूर्ण अनुभव होय छे ने
समकितीने अंशे अनुभव होय छे,–पण जात तो ते ज. समकिती आनंदसागरना अमृतनो अपूर्व
स्वाद लई रह्यो छे, आनंदना झरणामां मोज माणी रह्यो छे.
(१०१) जेने आत्माने खरेखर राजी करवानी धगश जागी ते आत्माने राजी कर्ये ज छूटको
करशे, अने तेने राजी एटले के आनंदधाममां पहोंच्ये ज छूटको छे. अहीं जगतना जीवोने राजी
करवानी वात नथी पण जे पोतानुं हित चाहतो होय तेणे शुं करवुं’ तेनी वात छे.
(१०२) अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवी सुखशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे. कांई पण करवानी
वृत्तिनुं उत्थान ते आकुळता छे अने आकुळता ते दुःख छे. अशुभ के शुभ कोई पण वृत्ति रहित शांत
निराकुळ दशा ते ज सुखनुं स्वरूप छे.
(१०३) छठ्ठी गाथामां श्री गुरुजी पासेथी महाविनय अने पात्रतापूर्वक ज्ञायकस्वरूपनुं श्रवण
करीने तेवो अनुभव करवा माटे अंतर्मंथन करतां करतां ‘हुं ज्ञायक छुं’ एम लक्षमां लेवा मांडयुं; परंतु
तेमां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठ्यो...गुणगुणीभेदना विकल्पथी पण आगळ कंईक अभेद वस्तु छे
तेने लक्षमां लईने तेनो अनुभव करवा माटे अंतरमां ऊंडो ऊंडो उतरतो जाय छे. अने ते वात
श्रीगुरुना मुखथी सांभळवा माटे विनयथी पूछे छे के प्रभो! ज्ञानदर्शनचारित्रना भेदथी आत्माने
लक्षमां लेवा जतां गुणगुणीभेदनो विकल्प ऊठे छे ने अशुद्धतानो अनुभव थाय छे, तो शुं करवुं?–श्री
आचार्यभगवान पण शिष्यनी अत्यंत निकट पात्रता देखीने तेने शुद्धआत्मानुं स्वरूप समजावे छे.....
(१०४) साधक संतो आत्माना आनंदरसमां लीन रहे छे. आत्मस्थिरता केम वधती जाय तेनी
ज तेमने धून छे....आत्मज्ञानी संत गृहवासमां रह्या होवा छतां अंतरथी उदास....उदास होय छे.
अहो! तेमनी अंर्तदशानी शी वात!
(१०प) अहो....धन्य ए पावनभूमि विपुलाचल....आजथी २प०६ वर्ष पहेलां ए तीर्थभूमि
उपर तीर्थंकरदेवना “कारध्वनिना नाद गूंजता हता....ने गणधरादि संतो ते झीलीने पावन थया हता.
–ए पवित्र