Atmadharma magazine - Ank 200
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८६ : १प :
प्रसंगोनो महान दिवस एटले अषाड वद एकम.–केवळज्ञान साथे संधि करीने भव्य जीवो तेनो
महोत्सव ऊजवे छे.
(१०६) जीवे मुख्यमां मुख्य अने अवश्यमां अवश्य एवो निश्चय राखवो के जे कांई मारे
करवुं छे ते आत्माने कल्याणरूप थाय ते ज करवुं छे.
(१०७) ‘धर्मनुं मूळ सर्वज्ञ छे.’ ते सर्वज्ञताना निर्णयमां घणी गंभीरता रहेली छे. अहीं, दरेक
आत्मामां रहेली सर्वज्ञत्वशक्ति उपरना प्रवचनमां पू. गुरुदेवश्रीए जैनधर्मना अनेक मूळभूत रहस्यो
प्रकाशित कर्या छे.
(१०८) अरे मूढ! तुं व्यवहारना आश्रयथी लाभ थवानुं माने छे, पण व्यवहारनो आश्रय
तो अनादिथी तुं करी ज रह्यो छे, छतां केम कल्याण न थयुं? माटे समज के व्यवहारना आश्रये कल्याण
थतुं नथी. भूतार्थ स्वभावना आश्रये ज कल्याण थाय छे.....संतोए जीवोना कल्याण अर्थे फरी फरीने
एना ज आश्रयनो उपदेश आप्यो छे.
(१०९) कोई पूछे के पहेलां अमारे शुं करवुं?–तो ज्ञानी कहे छे के ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’ एवो
अंतरमां निर्णय करीने तेनो अनुभव करवो.–आ ज जैनशासनमां दरेक जीवनुं प्रथम कर्तव्य छे.
(११०) “हुं ज्ञानस्वभाव ज छुं, मारा स्वभावमां अंतमुर्ख थईने ठरुं ते ज मारी मुक्तिनो
मार्ग छे. ए सिवाय क््यांय बहार जोवुं पडतुं नथी. केवो स्वावलंबी, सरळ अने सहज मुक्तिमार्ग!!–
आवा सहज मुक्तिमार्गे स्वयं विचरनारा अने जगतने ते पावनमार्ग देखाडनारा, हे संतो! आपना
पुनित चरणोमां परम उल्लासभावे नमस्कार हो!
(१११) जिनशासन एटले शुं अने जिनशासनने कोणे जाण्युं कहेवाय ते वात समयसारनी
पंदरमी गाथामां अद्भुत रीते वर्णवी छे. तेमां रहेलुं जैनशासननुं अतिशय महत्वनुं रहस्य पू.
गुरुदेवश्रीए प्रवचनमां खुल्लुं कर्युं छे. दरेक जिज्ञासुओए तेमज विद्वानोए आ गाथानुं रहस्य खास
विचारवा योग्य छे.
(११२) गमे तेवा संयोगोमां अने गमे तेवी प्रवृत्तिमां पड्यो होय तो पण हमेशां चोवीस
कलाकमांथी कलाक–बे कलाकनो वखत तो स्वाध्याय–मननमां गाळवो ज जोईए, अरे! छेवटमां छेवट....
ओछामां ओछो पा कलाक तो हंमेशा निवृत्ति लईने एकान्तमां शांतिपूर्वक आत्माना स्वाध्याय ने विचार
करवा ज जोईए. हंमेश पा कलाक वांचनविचारमां काढे तो पण महिनामां साडासात कलाक थाय; तथा
हंमेश हंमेश सतनुं स्वाध्याय–मनन करवाथी अंतरमां तेना संस्कार ताजा रह्या करे अने तेमां द्रढता थती
जाय. ×× माटे आत्मार्थी जीवोए.....‘जाणे हुं तो जगतथी छूटो छुं, जगतनी साथे मारे कांई संबंध नथी,
जगतना कोई कामनो बोजो मारा उपर नथी, हुं तो असंग चैतन्यतत्त्व छुं’ आ प्रमाणे, निवृत्त थईने
घडी–बे घडी पण पोताना आत्मानुं चिंतन–मनन करवुं जोईए. (–रात्रिचर्चामांथी)
(११३) अहो! आत्मभावना करीने संतो निज स्वरूपमां ठरे त्यां जगतनुं जोवा क््यां
रोकाय? संतोने तो आत्मानी ज धून लागी छे, आत्माना आनंदनी ज लगनी लागी छे....अशरीरी
चैतन्यनी भावना भावतां भवनो अभाव थई जाय छे. परनी भावना भाववामां तो भाई! तारो
अनंतकाळ चाल्यो गयो....हवे आवा चैतन्यनो महिमा जाणीने तेनी भावना तो कर. एनी भावनाथी
तारा भवना नीवेडा आवशे.
(११४) व्यवहार तो फोतरां जेवो छे, मूळ परमार्थ वस्तु निश्चय छे; जेओ परमार्थ वस्तुने
जाणता नथी, अने दया–व्रत वगेरे शुभ व्यवहारमां ज जेनो आत्मा अर्पाई गयो छे ते पुरुषो
अनाजने छोडीने फोतरां खांडे छे. ज्ञानी तो अंतरमां आत्माना परमार्थस्वरूपने जाणे छे, व्रतादिनो
राग आवे तेने ते मोक्षमार्ग मानता नथी.
(११प) सोनगढमां मानस्तंभ कराववानी