: १६ : आत्मधर्म: २००
भावना भक्तोना हृदयमां दस दस वर्षोथी घोळाया करती हती. फागण सुद पांचमे मानस्तंभनो ओर्डर
अपायो...चैत्र सुद १३ना मंगलदिने पायो खोदवानी शरूआत थई...वैशाख वद सातमे शिलान्यास
थयुं.....बधा भक्तजनो हाथोहाथ चणतरकाम करीने पोतानो उल्लास व्यक्त करता हता. ए वखते
भक्तोने मानस्तंभनी लगनी लागी हती, वेगनना समाचार आवतां आनंद फेलाई जतो;
मानस्तंभना नाना मोटा दरेक सामानने भक्तजनो बहुमानपूर्वक नीरखी नीरखीने जोता. ××××
चैत्र सुद दसमनुं प्रतिष्ठामुहूर्त निश्चित थयुं....ए महोत्सवनो आनंद–एनो महिमा अद्भूत हतो....
कोई कहे: “अमे विदेहधाममां आव्या होईए एवुं लागे छे.” ....महोत्सव वगेरेना उल्लासमय
संस्मरणो सांभळता ते पण एक महान सौभाग्य छे.
(११६) आत्माना भूतार्थ स्वभावना आश्रये ज मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे. ‘पहेलो
व्यवहार अने पछी निश्चय’ एम माननारना अभिप्रायमां अने अनादिना मिथ्याद्रष्टि जीवना
अभिप्रायमां कांई फेर नथी, बंने व्यवहारमूढ छे.–आ संबंधमां दिगंबरमत अने श्वेतांबरमत वच्चे
मोटो द्रष्टिभेद छे, तेनुं पू. गुरुदेवश्रीए खास स्पष्टीकरण कर्युं छे. दरेक जिज्ञासु जीवोए आ विषय
बराबर समजवो जरूरी छे.
(११७) अहो, सम्यग्दर्शन तो जगतमां अपूर्व अचिंत्य महिमावंत चीज छे; सम्यग्दर्शन थतां
ज आखुं परिणमन फरी जाय छे. जेने सम्यग्दर्शन थयुं तेना चैतन्यआंगणे मुक्तिना मांडवा नंखाया.
तेना आत्मामां सिद्धभगवानना संदेश आवी गया. आवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे शुं उपाय छे–ते
आ लेखमां वांचो.
(११८) मुनिदशानो अलौकिक महिमा छे, अहो! मुनिवरो तो केवळी प्रभुना पाडोशी छे, तेओ
पंच परमेष्ठी पदमां भळी गया छे अने केवळज्ञान लेवानी तैयारीवाळा छे,–जाणे हमणां श्रेणी मांडीने
केवळज्ञान लीधुं के लेशे एवी तेमनी आत्मजागृति छे. ए धन्यदशामां दुःख के कलेश नथी पण सिद्ध
भगवान जेवो अपूर्व महाआनंद छे. अहो, धन्य ते मुनिवरा! संयमसुधासागरमां झूलता ए संतोने
नमस्कार हो.
(११९) भगवाननी दिव्य वाणी तो अमोघ वाणी छे, ते कदी खाली जाय नहीं...ते वाणी
झीलीने धर्मवृद्धि करनार जीवो जरूर होय ज. वाणी काने पडतां ज पात्र श्रोताने तो एम थाय के
अहो! मने आवी अपूर्व वाणी मळी छे तो हुं नक्की मारी पात्रताथी समजीने अल्पकाळमां मुक्त
थईश. आ प्रमाणे जे ऊंडेथी हा पाडीने यथार्थ वात समजी जाय तेवा ज श्रोता अहीं लीधा छे....एवा
श्रोता धन्य छे, तेनुं जरूर कल्याण थई जाय छे.
(१२०) आजे आ अंकनी साथे ‘आत्मधर्म’ ना दस वर्ष पूरा थाय छे.....आ प्रसंगे सर्वे
जिज्ञासुओने हृदयपूर्वक एटलुं ज कहेवानुं के आत्मधर्ममां जे कांई आवतुं होय ते, आ काळे तीर्थंकर
भगवंतोना वारसानी एक अमूल्य भेट पू. गुरुदेव आपणने आपी रह्या छे–एम समजीने, गुरुदेव
प्रत्ये अतिशय भक्ति अने अर्पणतापूर्वक तेनुं स्वाध्याय मनन करीने तेने अंतरमां परिणमाववानो
प्रयत्न करो.
(१२१) ‘हे सखा! चालने मारी साथे मोक्षमां!’ –अतीन्द्रिय आनंदमां झूलता मुनिराज
पोते तो अंर्तस्वरूपना अवलंबने मोक्षने साधी रह्या छे ने श्रोताने पण कहे छे के हे सखा! तुं पण
चालने मारी साथे!! अमारो श्रोता अमाराथी जुदो रही जाय–ए केम बने?
(१२२) सर्व जिनशासननो सार शुं? के ज्ञानस्वरूप शुद्धआत्मा ते सर्व जिनशासननो सार
छे. आत्मानो स्वभाव शुं, विकार शुं, अने पर शुं,–ए त्रणेने जाणीने, विकार अने परथी भिन्न एवा
शुद्धआत्मस्वभावमां अंतर्मुख थईने एकाग्र थवुं ते जैनशासन छे. जेणे शुद्धआत्माने जाण्यो तेणे सर्व
जिनशासनने जाण्युं छे.