जेठ: २४८६ : १७:
(१२३) घणा लोको पूछे छे के मनुष्यनी फरज शुं?–मानवधर्म शुं? तेना उत्तरमां गुरुदेव कहे
छे के अरे भाई! सौथी पहेलां तो ‘हुं मनुष्य छुं’ एवी मान्यता ते ज मोटो भ्रम छे. मनुष्यपणुं ते तो
संयोगी पर्याय छे,–जीव–पुद्गलना संयोगरूप असमान जातीय पर्याय छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी.
मनुष्यपर्याय ते हुं नथी, हुं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं–एम समजवुं ते आत्मानी पहेली फरज छे, ने ते
पहेलो धर्म छे. मनुष्यभव पामीने करवा जेवुं होय तो ए ज छे. आ सिवाय ‘हुं मनुष्य ज छुं’ एम
मानीने जे कांई क्रियाकलाप करवामां आवे ते बधोय व्यवहारमूढ अज्ञानी जीवोनो व्यवहार छे.
(१२४) जैनधर्मनो क्रम ए छे के पहेलां सम्यग्दर्शन होय ने पछी ज सम्यक्चारित्र होय; अने
ते सम्यग्दर्शन पण निश्चयस्वभावना अवलंबने ज थाय. तेने बदले जे सम्यग्दर्शन वगर चारित्र
माने, अथवा तो पहेलां व्यवहार करतां करतां तेनाथी निश्चय श्रद्धा–ज्ञान थई जशे–एम माने तेओ
जैनधर्मना क्रमने जाणता नथी.
(१२प) ‘अहो! आ परथी भिन्न मारा ज्ञायकतत्त्वनी वात छे, मारा ज्ञायकतत्त्वनी प्रतीत
करवामां कोई रागनुं अवलंबन छे ज नहि’–आवा लक्षपूर्वक एटले के स्वभावना उल्लासपूर्वक एक
वार पण जे जीव आ वात सांभळे ते भव्य जरूर अल्पकाळमां मुक्ति पामे छे.
(१२६) कोई कहे के अमे पुरुषार्थ तो घणो करीए छीए पण समकित थतुं नथी.–तो ज्ञानी कहे
छे के अरे भाई! तारी वात जूठी छे. यथार्थ कारण आपे अने कार्य न आवे एम बने नहि. जो कार्य
नथी प्रगटतुं तो समज के तारा प्रयत्नमां भूल छे. सम्यग्दर्शन थवानी जे रीत छे ते रीते अंतरमां
यथार्थ प्रयत्न करे अने सम्यग्दर्शन न थाय–एम बने ज नहि.
(१२७) सुप्रभातना प्रकाशमां मेरु उपर बिराजमान प्रभुजीनुं द्रश्य अत्यंत भव्य लागतुं हतुं.
ए वखते भगवानने नीरखतां एम थतुं हतुं के अहो, नाथ! धन्य आपनो अवतार! धन्य आपनो
जन्म! आ अवतारमां ज आत्माना पूर्ण हितने साधीने आप तीर्थंकर थशो....ने जगतना अनेक भव्य
जीवोनो उद्धार करशो. आ आपनो छेल्लो अवतार छे. ए बाल–प्रभुजीने नीरखतां भक्तोने बहु
आनंद थतो हतो.
(१२८) हे जीव! एक क्षण पण तारा स्वरूपनो विचार कर! शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माना
चिंतवन सिवाय बीजा पदार्थोनी चिंता व्यर्थ छे. देहथी भिन्न मारुं चिदानंद स्वरूप शुं छे तेनो हे जीव!
तुं विचार कर.
(१२९) स्वरूपनी प्राप्ति सुगम छे;
परने पोतानुं करवुं अशक््य छे.
(१३०) जेणे पोताना ज्ञानानंदस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी सम्यक् प्रतीति करी–ज्ञान कर्युं
ने तेमां एकाग्रता करी तेणे करवायोग्य अपूर्व कार्य कर्युं तेथी ते कृतकृत्य थयो....हे भाई! एक वार तो
अंतर्मुख थईने स्वभावनो निर्णय कर, अने अनंतकाळमां नहि करेल एवुं अपूर्व कार्य प्रगट कर.
(१३१) ‘उपयोग स्वरूप आत्मा’ अने ‘क्रोधादि स्वरूप आस्रवो’ ए बंनेनुं यथार्थ भेदज्ञान
थतां जीव पोताना उपयोगस्वरूप आत्मामां ज एकता करीने पोताना शुद्ध उपयोगभावने ज करे छे,
परंतु शुद्ध उपयोग सिवाय क्रोधादि भावोने पोतामां जरापण करतो नथी, तेथी तेने ते क्रोधादिकनो
संवर थाय छे.–आ रीते भेदज्ञानथी ज जीवने संवर थाय छे माटे ते भेदज्ञान अत्यंत प्रशंसनीय छे.
आवा भेदज्ञान सिवाय अज्ञानी जीव गमे तेटलां व्रतादिक करे तो पण ते प्रशंसनीय नथी.
(१३२) ‘अहो! अंतरमां परम चैतन्यतत्त्व छे तेने जगतना जीवो समजे ने आत्माना
आनंदनी सन्मुख थाय?” –आवो संतोने विकल्प उठयो....