: १८ : आत्मधर्म: २००
ज्ञानने अंतर्मुख करीने अंदरथी चैतन्यनो झणझणाट आव्यो त्यां चैतन्यतत्त्व लक्षमां आवे छे ने तेनो
अपूर्व आनंद अनुभवमां आवे छे.–माटे हे जीव! शुद्ध चैतन्यतत्त्व उपर ज लक्षनुं जोर आपीने तेने
ध्येय बनावजे.
(१३३) पोताना सर्वज्ञ स्वभावनी प्रतीत करीने भगवानना भक्तो कहे छे के हे भगवान!
आप तो आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना पूर्ण भोक्ता थई गया ने अमारा माटे पण आप थोडो
प्रसाद मूकता गया छो. हे भगवान! आपनी प्रसन्नताथी अमने पण आपना अतीन्द्रिय आनंदनी
प्रसादी मळी छे.....आम समकिती भक्तिपूर्वक भगवानना आनंदनो प्रसाद माने छे.
(१३४) आत्माना अतीन्द्रियसुखने स्पर्शीने बहार आवती, भेदज्ञाननो झणझणाट करती,
अने मुमुक्षुओनां हैयाने डोलावी मूकती. पू. गुरुदेवनी पावनकारी वाणीमां ‘ज्ञायक सन्मुख लई
जनारां क्रमबद्ध पर्यायनां प्रवचनो’ नी जे अद्भूत अमृतधारा एक सप्ताह सुधी वरसी, ते गया
अंकमां आपी गया छीए.....त्यार पछी....बीजीवार...एवीज अमृतधारा.....वरसी......ए अमृतधारा
अहीं (अंक १३४–३पमां) आपवामां आवी छे.
(१३प) ज्ञायकस्वभावना निर्णयना पुरुषार्थवडे ज क्रमबद्ध पर्यायनुं स्वरूप यथार्थपणे
समजाय छे. जे जीव ज्ञायक स्वभावना निर्णयनो पुरुषार्थ नथी करतो तेने क्रमबद्ध पर्यायनो पण
निर्णय थतो नथी. आ रीते ज्ञानस्वभाव तरफथी शरूआत करे तो ज आ वात यथार्थ समजाय तेवी
छे. अने आ रीते जे जीव यथार्थपणे आ वात समजशे तेने आत्महितनो महान लाभ थशे...... ....
....... पंचपरमेष्ठी भगवान ज अमारा ‘पंच’ छे. अज्ञानीओ बीजुं विपरीत माने तो भले माने, पण
अहीं तो पंचपरमेष्ठी भगवंतोने पंच तरीके राखीने आ वात कहेवाय छे. जेने पंचपरमेष्ठी पदमां
भळवुं होय तेणे आ वात मान्ये छूटको छे.
(१३६) घणा लोको रोज ‘णमोक्कार मंत्र’ बोली जाय छे, पण ते णमोक्कार मंत्रमां जे
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार करवामां आव्या छे तेमनुं स्वरूप तो ओळखता नथी. जेमने पोते
नमस्कार करे छे. तेमनुं स्वरूप जाण्या वगर प्रयोजननी सिद्धि क््यांथी थाय? हुं कोने नमस्कार करुं छुं
ने शा माटे नमस्कार करुं छुं–ते ओळखे तो प्रयोजननी सिद्धि थाय.
(१३७) हे भाई! जगतना लोको भेगा थईने तारी प्रशंसा करे के अभिनन्दन–पत्र आपे
एमां तारा आत्मानुं कांई हित नथी; पण पोताना चिदानंदस्वभावनी अभिमुख जईने तेना
अतीन्द्रिय–आनंदनो अनुभव करवो ते आत्मानुं साचुं अभिनन्दन छे, अने तेमां ज तारुं हित छे.
(१३८) परम प्रभावक पूज्य गुरुदेवना पुनित प्रतापे तीर्थधाम सोनगढमां त्रेसठ फूट ऊंचो
भव्य मानस्तंभ थयो; आ मानस्तंभनी भव्यता नीरखतां भक्तजनोने अति आनंद थाय छे अने
अंतरमां एवी ऊर्मि जागे छे के अहो! जाणे महाविदेहना ज मानस्तंभना दर्शन थया......आ पावन
मानस्तंभनी छायामां आवतां ज शांत–शांत लहरीओथी हृदय अत्यंत विश्रांति पामे छे.. ..... जेनां
दर्शन थतां ज भक्तिथी नम्रीभूत थईने हृदय पोकारी ऊठे छे के अहो! धन्य ए जिनेन्द्रवैभव! धन्य
ए मानस्तंभ! धन्य ए महोत्सव!
(१३९) हे जीव! जो तारे आनंदमूर्ति आत्मा जोईतो होय तो आखा संसारने ‘हराम’ कर, के
मारे हवे संसार स्वप्ने पण जोईतो नथी. अरे, हवे आ दुःखमय संसारथी बस थाव....बस थाव! हवे
मारे आ संसार न जोईए;–आम संसारनी रुचि छोडीने आत्माने झंखतो जे जीव आवे छे तेने
आत्मा मळशे.
(१४०) शुद्ध उपयोगना प्रसादथी जीव पोते ज स्वयमेव स्वभावथी परिणमीने केवळज्ञानरूप
थाय छे, तेथी ते ‘स्वयंभू’ छे. तेनी प्रशंसा करीने