: २२ : आत्मधर्म: २००
“क््यां रहेवुं?” तो ज्ञानी कहे छे के “अमारा निज धर्मोमां रहेवुं.”
(१६३) महापुरुषोए एम जोयुं के आत्मामां ज सुख छे. संयोगमां सुख नथी; तेथी संयोग
तरफनुं वलण छोडीने तेओ स्वभावमां एकाग्र थया. स्वभाव तरफनी एकाग्रता ते सुखनी जनेता छे.
(१६४) राजगृही नगरीमां......पू. गुरुदेवे......विपुलाचल उपर वीरप्रभुना समवसरणना अने
दिव्य ध्वनिना धामने हृदयनी ऊंडी ऊर्मिओपूर्वक नजरे नीहाळ्या.....दिव्यध्वनि छूटवाना ए धन्य
प्रसंगने याद करीने भावभीनी अद्भुत भक्ति करी.......जे भूमिमां आत्माना ज्ञान–आनंदने पामेला
जीवो विचर्या ते भूमिने जोतां आत्माना ज्ञान–आनंदनुं स्मरण जागे छे.
“अनंत चोवीसीना तीर्थंकरो अने आचार्योए सत्य दिगंबर जैनधर्मने अर्थात् मोक्षमार्गने
प्रगट करनारो जे संदेश संभळाव्यो ते ज आमनी (कानजीस्वामीनी) वाणीमां आपणा सांभळवामां
आवी रह्यो छे.....आमनी वाणीमां तीर्थंकरोनुं अने कुंदकुंदस्वामीनुं ज हृदय हतुं....आपनी द्रष्टिथी जे
प्रतिप्रादित थाय छे ते जगतने माटे कल्याणकारी छे.”
(–मधुवनमां ईंदोरना पंडित श्री बंसीधरजी सिद्धांतशास्त्रीना भाषणमांथी)
(१६प) रे जीव! तुं बाह्य विषयोमां सुख मानीने त्यां ज आसक्त थाय छे, परंतु “आत्मा”
पण एक विषय छे,–एने तुं केम भूली जाय छे?–जेने लक्षमां लेतां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय–
एवा परम शांत आनंदस्वरूप स्वविषयने छोडीने दुःखदातार एवा परविषयोमां ज तुं कां राची रह्यो
छे?–स्वविषयमां एकाकार थतां ज तने एम थशे के ‘अहो, आवो मारो आत्मा!–अने पछी आ
स्वविषयना अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद पासे जगतना बधा विषयो तने अत्यंत तूच्छ लागशे.
(१६६) आ जिनागमनो प्रसिद्ध ढंढेरो छे के मोक्ष माटे ज्ञानस्वरूप आत्मानी अनुभूति
करो..... ते अनुभूति ज भगवाने मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे.
(१६७) जे धर्मी छे अथवा धर्मनो खरो जिज्ञासु छे तेने जगत करतां आत्मा वहालो छे,
आत्मा करतां जगतमां कांई तेने वहालुं नथी. जेम गायने पोताना वाछरडां प्रत्ये, अने बाळकने
पोतानी माता प्रत्ये केवो प्रेम होय छे? तेम धर्मीने पोताना रत्नत्रयस्वभावरूप मोक्षमार्ग प्रत्ये
अभेदबुद्धिथी परम वात्सल्य होय छे.
(१६८) सभामां हाजर होवा छतां जे श्रोतानो उपयोग श्रवणमां नथी जोडातो ने बीजे
बहारमां उपयोग भमे छे ते श्रोतानो आत्मा गेरहजार छे. तेनुं शरीर अहीं बेठुं छे पण आत्मानो
उपयोग तो बीजे भमे छे, तेथी ते हाजर छतां गेरहाजर छे.
(१६९) प्रश्न:– प्रज्ञा छीणीवडे आत्मा अने बंधनुं भेदज्ञान करतां शुं थाय?
उत्तर:– प्रज्ञा छीणीवडे भेदज्ञान करतां ज आत्मामां मोक्षना संदेशा आवी जाय, आत्मामां सिद्ध
भगवान जेवा परम आनंदनो नमूनो आवी जाय.
(१७०) ए नानकडो राजकुंवर ज्यारे दीक्षा लईने मुनि थाय, एक हाथमां नानकडुं कमंडळ ने
बीजा हाथमां मोरपींछी लईने नीकळे,–त्यारे तो अहा! जाणे नानकडा सिद्धभगवान उपरथी ऊतर्यां,
वैराग्यनो अबधूत देखाव! आनंदमां लीनता! वाह रे वाह!! धन्य तारी दशा.
(१७१) भले बोम्बगोळो के कृत्रिम उपग्रह शुं छे तेनी खबर न होय, पण जो आत्मस्वरूपने
जाणीने भवसमुद्रथी तरतां आवडयुं तो ते जीव सम्यक्विद्यामां आगळ वधी रह्यो छे, तेणे ज साचुं
“विज्ञान” जाण्युं छे, ने ते विज्ञान तेने परमशांतिनुं कारण थाय छे.
–आ छे अध्यात्म–विज्ञान!
–आ छे भारतनी अध्यात्मविद्या!
“सा विधा या विमुक्तये”