अषाड: २४८६ : ९ :
केवळज्ञान साथे श्रुतज्ञाननी अपूर्व संधि
निजघरमां वसवुं तेनुं नाम वास्तु
* श्रुतपंचमीना दिवसे शेठ मगनलाल सुंदरजीना मकानना वास्तु
प्रसंगे तेमना मकानमां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी
आत्मा आनंदस्वरूप सर्वज्ञ स्वभावी छे, तेना स्वभावनुं यथार्थ ज्ञान ते आनंदना अनुभवनुं
कारण छे.
आत्मानुं वास्तविकज्ञान एटले के भावश्रुतज्ञान ते अनाकुळ–आनंदरूप छे; आजे श्रुतपंचमी
छे. भगवाननी परंपराथी आवेलुं जे श्रुतज्ञान जळवाई रह्युं, तेमांथी पुष्पदंत–भूतबली आचार्य
भगवंतोए षट्खंड आगमनी रचना करी, ने तेनो घणो मोटो उत्सव करीने चतुर्विध संघे श्रुतज्ञाननुं
बहुमान कर्युं; ए रीते आजे श्रुतज्ञाननी आराधनानो मोटो दिवस छे.
श्रुतज्ञाननी आराधना कई रीते थाय? तेनी आ वात छे. श्रुतज्ञाने कहेलो जे आत्मानो परम
शुद्धस्वभाव, तेनी सन्मुख थईने भावश्रुतथी आत्माने जाणवो–अनुभववो ते श्रुतज्ञाननी आराधना
छे. अने एवा शुद्धआत्मस्वभावरूपी निजघरमां वसवुं ते परमार्थ ‘वास्तु’ छे. चैतन्यवस्तुमां वास
तेनुं नाम वास्तु; निजघरमां प्रवेशीने तेमां रहेवुं तेनुं नाम वास्तु. अनादिथी परभावरूपी परघरमां
वस्यो छे त्यांथी खस्यो, ने निजघरमां आवीने वस्यो, तेणे अपूर्व वास्तु कर्युं, ते मंगळ छे, ने ते
केवळज्ञान तथा पूर्ण आनंदनुं कारण छे.
अहीं केवळज्ञानना महिमानी वात छे. परम प्रत्यक्ष एवुं केवळज्ञान ते अनाकुळ छे–आनंदरूप
छे; अने साधकने भावश्रुतज्ञान पण स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे, ने ते पण अनाकुळ छे ने आनंदरूप छे.
केवळज्ञान परमप्रत्यक्ष छे.
साधकनुं श्रुतज्ञान स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे.
ते बंने आनंदस्वरूप छे.
ते बंने मंगळस्वरूप छे.
ते बंनेमां डगले डगले–मंगळ छे.
जेणे निजस्वरूपनी प्रतीत करीने भावश्रुतथी तेमां प्रवेश कर्यो तेणे असंख्यप्रदेशी स्वघरमां
वास्तु कर्युं, तेने हवे पगले पगले (पर्याये पर्याये) आनंद–मंगळनी वृद्धि छे.
अहा! संतोए केवळज्ञान अने भावश्रुतज्ञाननी संधि करीने जगतना भव्य जीवोने आनंदनी
भेट आपी छे. केवळज्ञान एटले देवस्वरूप; केवळज्ञान एटले दिव्यस्वरूप; केवळज्ञान एटले अरहंतनुं
स्वरूप; तेनो अचिंत्य महिमा छे. तेनो निर्णय थतां आत्मानो निर्णय थाय छे; तेनो निर्णय थतां
आनंदनो अनुभव थाय छे, साधक भावना अंकुरा फूटे छे.
केवळज्ञाननो विस्तार केटलो?–ते केवळज्ञान रह्युं छे तो असंख्य आत्मप्रदेशमां, पण तेनी सर्व
शक्ति खूली गई छे तेथी पोतानी दिव्य प्रभुतावडे ते सर्व ज्ञेयोमां व्यापीने रहेलुं छे एटले के ते सर्व
ज्ञेयोने जाणी ल्ये छे; तेथी तेने कोई जातनी आकुळता, कुतूहल के ईच्छा रही नथी.
जुओ, आ चैतन्यनुं पाणी! जेम श्रीफळमां मीठुं पाणी भर्युं छे तेम आत्मामां आनंदमय
चैतन्यरस भर्यो छे.–तेना स्वाद पासे जगतना बधा रस फीक्का लागे छे. परमां सुख नथी, परमां सुख
भासे छे ते तो मात्र