Atmadharma magazine - Ank 201
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 21

background image
: १० : आत्मधर्म: २०१
कल्पना छे, ते कल्पना पण विरूप छे, ते चैतन्यनुं रूप नथी. चैतन्यनुं रूप तो शांत अनाकुळ छे, ते
स्वयं निराकुळ आनंदस्वरूप छे.
जेने आवा आनंदस्वरूप आत्मानुं भान नथी, ते राजपाटमां के स्वर्गमां होय तो पण तेने एकांत
आकुळतानुं ज वेदन होय छे–एटले के दुःखनो ज अनुभव होय छे. ज्ञानीधर्मात्माने चैतन्यना अनाकुळ
आनंदनुं वेदन होय छे,–अंशे राग–द्वेष होय छे पण तेमां के परमां सुखबुद्धि नथी. आ रीते साधकने अंशे
आनंद छे. ने पूर्णज्ञानने पामेला केवळज्ञानी भगवानने तो पूर्ण आनंद छे–एकलो आनंद छे.
जुओ, आजे श्रुतपंचमीना मोटा दिवसे आत्माना आनंदनी वात आवी छे. केवळज्ञान पोते मंगळरूप
ने आनंदरूप छे, अने तेना स्वरूपनो निर्णय करनारुं श्रुतज्ञान पण अंशे मंगळरूप ने आनंदरूप छे.
संतो ए आत्मामां आनंदना मंगळ साथिया पूरे छे. जेम महापुरुष आंगणे पधारतां साथिया
पूरे, तेम महान एवुं केवळज्ञान आत्माना आंगणे नजीक आवी रह्युं छे–अल्पकाळमां केवळज्ञान
पामवाना छे, तेनी तैयारीमां भावश्रुतज्ञानथी संतोए आत्मामां साथिया पूर्या छे.
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
चैतन्यनी सर्वज्ञता जगतना बधा भावोने पी गई छे...तेणे ब्रह्मांडना बधा भावोने जाणी
लीधा छे. एवा चैतन्यनी परम महत्ता संतोए शास्त्रोमां भरी छे. कुंदकुंदाचार्य–भगवाने ‘समयसार’
रच्युं ने अमृतचंद्राचार्य देवे टीकाद्वारा तेना अजबगजबना गंभीरभावो खोलीने साथिया पूर्या....ते
भावोने जेणे जाण्या तेना आत्मामां सम्यग्दर्शनना साथिया पूराया.
जुओ, आ चैतन्य–महेलमां प्रवेशवानुं वास्तु! अनादिथी अज्ञानदशामां आत्मामां रागनी वास
हती, रागनी गंध हती; हवे यथार्थ ज्ञानवडे आत्मामांथी रागनो वास काढी नांख्यो ने केवळज्ञाननो वास
कर्यो तेणे साचुं वास्तु कर्युं. ते अल्पकाळे केवळज्ञान पामीने सिद्ध भगवंतोनी वसतीमां जईने सादि–
अनंतकाळ वसशे. चैतन्यना स्वघरमां वस्यो ते वस्यो....हवे त्यांथी कदी खसशे नहीं–एनुं नाम वास्तु!
सामायिक माटेनुं पाथरणुं कर्युं? के असंख्य प्रदेशी चैतन्यक्षेत्र ते ज सामायिक माटेनुं पाथरणुं
छे, ते चैतन्यक्षेत्रमां बेसीने ज सामायिक थाय छे. रागमां बेसीने सामायिक थती नथी, के जडमां
बेसीने सामायिक थती नथी. जडथी पार ने रागथी पण दूर जईने चैतन्यस्वभावमां स्थिर बेसवाथी
सामायिक थाय छे. सामायिकमां धर्मात्माने आत्मा ज समीप छे; आत्मानी समीप जे वर्ते छे ने
रागथी दूर वर्ते छे तेने ज सामायिक थाय छे.
सिद्ध समान जे स्वपद तेने जे जाणतो नथी, अने सिद्धमां ने पोताना स्वरूपमां परमार्थे जे फेर
माने छे ते जीव सिद्धना पडखेथी खसीने संसारना पडखे वस्यो छे, ते मूढ– मिथ्याद्रष्टि छे.
“भगवान सर्वज्ञ, भगवानने पूर्ण आनंद, भगवान परम वीतराग”–एम कहे परंतु, “जेवा
भगवान तेवो ज हुं, भगवानना ने मारा स्वभावमां परमार्थे कांई ज फेर नथी“–एम पोते भेगो मळीने
ज्यांसुधी निर्णय न करे त्यां सुधी भगवानना स्वरूपनो पण साचो निर्णय थाय नहि; अने पोते आवो
निर्णय कर्या वगर बीजा धर्मात्मानी पण खरी अंतर ओळखाण थाय नहि; तेथी अज्ञानी बहारना
संयोग उपरथी धर्मीनुं माप काढे छे पण धर्मना साचा स्वरूपनी तेने खबर नथी.–माटे जेणे धर्मी थवुं होय
तेणे सर्वज्ञ जेवा पोताना ज्ञानस्वभावनो श्रुतज्ञानथी निर्णय करवो.–आ निर्णय करवो ते धर्मनुं पहेलुं
अपूर्व कार्य छे. जेणे आवो निर्णय कर्यो तेणे पोतानी प्रभुता तरफ पगला मांडयां, तेणे चैतन्यमां साथीया
पूर्या...ने स्वघरमां वास कर्यो....ते अल्पकाळमां केवळज्ञान अने परम आनंदने पामशे.
प्रवचनसार गाथा ६० मां आचार्यदेव कहे छे के केवळज्ञान एकांतिक सुख छे–एम सर्वथा
अनुमोदवा योग्य छे,–आनंदथी संमत करवा योग्य छे. एटले के, हे जीव! केवळज्ञानने संमत करवाथी
तने तारा आत्मामां जरूर आनंद थशे.