: १२ : आत्मधर्म: २०१
संवर माटे भेदज्ञाननी भावना
प्रश्न:– संवर कई रीते थाय छे?
उत्तर:– भेदविज्ञानथी संवर थाय छे.
प्रश्न:– भेदविज्ञान एटले शुं?
उत्तर:– आत्मा उपयोगस्वरूप छे, रागादि
परभावोथी ते भिन्न छे,–एम उपयोगने अने
रागादिने सर्वप्रकारे अत्यंत जुदा जाणीने, रागथी
भिन्नपणे अने उपयोगमां एकतापणे ज्ञान
परिणमे ते भेदविज्ञान छे.
प्रश्न:– भेदज्ञानी शुं करे छे?
उत्तर:– ते धर्मात्मा पोताना भेदविज्ञाननी
शक्तिवडे निज महिमामां लीन थाय छे; तेओ रागरूपे
जरा पण नथी परिणमता, ज्ञानरूपे ज रहे छे.
प्रश्न:– धर्मात्मा रागरूपे नथी परिणमता–एटले
शुं? तेमने राग तो होय छे?
उत्तर:– राग होवा छतां ‘राग ते आत्मा छे’
एवी बुद्धि ते धर्मात्माने थती नथी, एटले राग
साथे आत्मानी एकतारूपे तेओ परिणमता नथी
पण रागथी जुदापणे ज परिणमे छे, माटे कह्युं के
धर्मात्मा रागरूपे जरा पण परिणमता नथी.
प्रश्न:– धर्मात्मा ज्ञानरूपे ज रहे छे–एटले शुं?
उत्तर:– भेदविज्ञानी धर्मात्मा सर्व प्रसंगे जाणे छे
के ‘ज्ञानस्वभाव ज हुं छुं’ गमे तेवी प्रतिकूळताथी
घेराई जाय तो पण ‘हुं ज्ञानस्वभाव ज छुं’ एवी
श्रद्धा तेमने छूटती नथी.–आ रीते सर्व प्रसंगे
पोताने चैतन्यस्वभावपणे ज अनुभवता होवाथी
धर्मात्मा ज्ञानरूपे ज रहे छे.
प्रश्न:– धर्मात्मा ज्ञानरूपे ज रहे छे ने रागरूपे
जरा पण नथी थता–ए कोनुं बळ छे?
उत्तर:– ए भेदविज्ञाननुं ज बळ छे.
भेदविज्ञाननी एवी ताकात छे के ते ज्ञानने ज्ञानरूपे
ज राखे छे, तेने जरापण विपरीतता पमाडतुं नथी
तेमज तेमां रागादिभावोने जरापण प्रवेशवा देतुं
नथी. आ रीते भेदविज्ञाननुं बळ ज्ञानने अने रागने
भेळसेळ थवा देतुं नथी पण जुदा ज राखे छे, तेथी
भेदविज्ञानी धर्मात्मा ज्ञानरूपे ज रहे छे ने रागरूपे
जरा पण थता नथी.
प्रश्न:– संसार शुं? ने संवर शुं?
उत्तर:– परमां एकता ते संसार; ने
स्वमां एकता ते संवर.
अथवा
अज्ञान ते संसार; ने
भेदज्ञान ते संवर.
प्रश्न:– संसार केम अटके?–संवर केम थाय?
उत्तर:– शुद्ध आत्मानी प्राप्तिथी संसार अटके
छे, संवर थाय छे.
प्रश्न:– शुद्ध आत्मानी प्राप्ति केम थाय?
उत्तर:– भेदज्ञाननी तीव्र भावनाथी
शुद्धआत्मानी उपलब्धि थाय छे, माटे भेदज्ञान
अत्यंत भाववा योग्य छे.
प्रश्न:– भेदज्ञान क््यां सुधी भाववुं?
उत्तर:– अच्छिन्नधाराथी भेदज्ञान त्यांसुधी
भाववुं के ज्यांंसुधी ज्ञान ज्ञानमां ज ठरी जाय.
पहेलां परथी भिन्न शुद्धआत्मानी भावना करतां
करतां ज्ञान ज्ञानमां ठरतां रागादिथी भिन्न थईने
सम्यग्ज्ञान थाय छे. त्यारपछी पण परथी भिन्न
एवा शुद्धात्मानी सतत भावना करतां करतां
केवळज्ञान थाय छे. माटे, केवळज्ञान थतां सुधी
अच्छिन्नधाराथी भेदज्ञान भाववुं. आ भेदज्ञाननी
भावना ते रागरूप नथी पण शुद्धआत्माना
अनुभवरूप छे, एम समजवुं.
अहीं कह्युं के भेदज्ञान अच्छिन्नपणे भाववुं ने
‘अतीव’ एटले के अत्यंतपणे भाववुं, उग्रपणे
भाववुं. थोडीक भावना करीने थाकी न जवुं पण
शुद्धात्मानो साक्षात् अनुभव थता सुधी अति
द्रढपणे निरंतर भेदज्ञाननी भावना करवी.
प्रश्न:– आ भेदज्ञाननुं फळ शुं छे?
उत्तर:– भेदज्ञाननुं फळ केवळज्ञान अने
सिद्धदशा छे. जे कोई जीवो सिद्ध थया छे तेओ
भेदज्ञानथी ज थाय छे.