करीने दुःखी थई रह्यो छे. आवा जीवोने आत्मानी शांतिनो साचो राह बताववा माटे आचार्यदेवे आ
पद्मनंदीपचीसी शास्त्र रच्युं छे. तेमां कहे छे के अरे जीव! तें तारा स्वरूपनुं खरूं मनन कदी कर्युं नथी,
अनंतकाळना परिभ्रमण–प्रवाहमां तुं अनंत वार देव अने नारकी थयो, राजा अने रंक पण थयो, तें
पुण्य पण कर्यां अने पाप पण कर्यां, पण सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा पोते कोण छे तेनुं लक्ष कदी एक
क्षण पण तें नथी कर्युं. चैतन्यने चूकीने तें लक्ष्मी, शरीर वगेरे बाह्यवस्तुमां सुखनी कल्पना करी छे;
बाह्यवस्तुमां कदी सुख नथी. तारुं सुख तारी प्रभुतामां छे. पण पोताना प्रभुता चूकीने तुं तारा
अज्ञानथी ज अनंत दुःख पाम्यो छे.
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत,
तारे शांति जोईती होय, आनंद अनुभववो होय तो, आचार्यभगवान कहे छे के, तारा निर्दोष
चैतन्यस्वरूपने लक्षमां लईने तेनुं चिंतन कर. सिद्धभगवान जेटली परिपूर्ण ताकात तारा आत्मामां
भरी छे, तेनी सन्मुख थईने तेनो आदर कर...ने विभावोनो आदर छोड, संयोगोमां सुखबुद्धि छोड.
परचीजथी तारो महिमा नथी, क्षणिक पुण्य–पापनी वृत्तिथी तारो महिमा नथी, अखंड
ज्ञानानंदस्वभाव परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरपूर निर्दोष छे–तेनाथी ज तारो महिमा छे, माटे तेनो आदर
कर, तेनी रुचि–विश्वास कर; तेमां अंतर्मुख थतां तने तारी अपूर्व शांति ने आनंदनुं वेदन थशे.
शांतिस्वभाव नथी, तो तेनी विकृतिरूप क्रोध पण नथी. माटे क्रोधादि क्षणिक विभाव वखते–तेटलो ज
आत्माने न मानतां, त्रिकाळी शांतिथी भरपूर तारा ज्ञानानंदस्वभावने लक्षमां लईने तेनो आदर
कर....ते स्वभावनो आदर करतां विभावनो आदर छूटी जशे....विभावनो आदर छूटी गया पछी ते
लांबो काळ टकी शकशे नहीं. जेवी भावना तेवुं भवन, एटले के विकारनी जेने भावना होय ते
विकारने ज पामे; अने ज्ञानानंदस्वभावनी जेने भावना होय तेने तेनी प्राप्ति थाय ज. ज्ञानानंद तो
पोतानो स्वभाव ज छे, पोतानी वस्तुनी पोताने प्राप्ति न थाय–ए केम बने? पण तेने माटे अंतर्मुख
थईने, स्ववस्तुने लक्षमां लईने तेनी भावना करवी जोईए. जीवे अनादिथी बर्हिमुख बुद्धिथी
परभावोनी ज भावना करी छे पण अंर्तमुख थईने कदी स्वभावनी भावना भावी नथी–भगवान
कुंदकुंद स्वामी कहे छे के–