सम्यक्त्व–आदि भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे.
अरे जीव! पूर्वे कदी नहि भावेल एवी स्वभावभावना हवे भाव. चिदानंदस्वरूपनी भावनाथी
भावना तो तें अत्यार सुधी भावी, हवे तो भवनो छेद करनारी भावना तुं भाव. जगतमां सौथी
वधारे शक्तिमान एवो तारो स्वभाव ज छे, ते स्वभावनी भावना तुं कर. आ जगतना ठाठ–माठ ने
संयोग तो चार दिवसना चांदरडा जेवा छे, ते तो क्षणमां वींखाई जशे, तेमां क््यांय तारुं शरण नथी.
तारो ज्ञानानंदस्वभाव एक ज तने शरणभूत छे, माटे तेनो विश्वास करीने तेनुं शरण ले. आ शरीर
पण तने शरणरूप नहि थाय–एक क्षण पण ते तारुं राख्युं नहि रहे, ने एक डगलुं पण ते तारी साथे
नहि आवे. तारो चिदानंदस्वभाव सदा तारी साथे रहेनार छे ने ते ज तने शरणरूप छे.
अंतर्मुख श्रद्धावडे चैतन्यज्योत प्रगटी तेमना भ्रांति अने कर्मो बळीने भस्म थई जाय छे.–आ ज
आत्मिकशांतिनो उपाय छे. परपदार्थ वगर आत्मा पोते एकलो ज पोतानो आनंद अनुभवी शके छे.
दुःखनो आघात थतां शरीर छोडीने पण ते दुःखथी मुक्त थवा चाहे छे ने सुखी थवा चाहे छे; एटले
तेमां अव्यक्तपणे पण ए वातनो स्वीकार थई जाय छे के शरीर वगर पण आत्मा एकलो पोताथी
सुख थई शके छे; आत्मानुं सुख शरीरमां के कोई बाह्य विषयोमां नथी, आत्मानुं सुख आत्मामां ज
छे. जेम शरीर वगर आत्मा सुखी रही शके छे तेम राग वगर पण आत्मा सुखी रही शके छे.–आ रीते
देहथी भिन्न ने रागादिथी भिन्न एवा तारा ज्ञानानंदस्वभावने लक्षमां लईने तेनी प्रतीतवडे एवी
श्रद्धाज्योत प्रगटाव के जेमां भ्रांति बळीने भस्म थई जाय, ने अपूर्व आत्मशांति जागे.
वांचो.