अषाड: २४८६ : ७ :
भे द ज्ञा न क र वुं
ते ज शांतिनो उपाय छे
(राजकोटशहेरमां पू. गुरुदेवना अध्यात्मरस
भरपूर प्रवचनोनो थोडोक नमूनो)
आत्मा कर्ता थईने शुं करे तेनी वात छे.
प्रथम, जो परद्रव्यमां व्यापीने आत्मा तेने करे तो ते परद्रव्यनी साथे एकमेक थई जाय...ने
जडथी जुदुं तेनुं अस्तित्व ज न रहे.–परंतु एम तो कदी बनतुं नथी. परथी त्रिकाळ जुदो रहेनार
आत्मा परद्रव्यमां कांई करतो नथी.
हवे कोई एम कहे के “आत्मा परद्रव्यमां तन्मय थईने भले तेनो कर्ता न हो, परंतु जुदो
रहीने निमित्तपणे तो कर्म वगेरे परद्रव्यनो कर्ता थायने? निमित्तपणे कर्ता थवानो तो स्वभाव छे ने?
तो तेनो खुलासो करतां आचार्यदेव कहे छे के: हे भाई! समकितीना स्वभावनी तने खबर नथी.
समकितीनी द्रष्टि क््यां छे तेनी तने खबर नथी. समकितीनी द्रष्टि आत्माना चिदानंद स्वभाव उपर छे,
अने ते स्वभावनी सन्मुखताथी निर्मळ पर्यायो थती जाय छे अने कर्म साथेनो संबंध तूटतो जाय छे
एटले धर्मात्मानी आवी द्रष्टिथी जोतां आत्मा विकारनो पण कर्ता नथी, अने ज्यां विकारनो कर्ता नथी
त्यां कर्म वगेरेनो निमित्तकर्ता पण क््यांथी होय?
आवो चिदानंद स्वभाव जेनी द्रष्टिमां नथी आव्यो ते ज अज्ञानभावे विकारनो कर्ता थाय छे;
अने जे विकारनो कर्ता थाय छे ते ज पोताना आत्माने परद्रव्यनो निमित्तकर्ता माने छे.
एक पण परद्रव्यना कार्यमां पोतानो आत्मा निमित्तकर्ता थाय एवी जेनी द्रष्टि छे तेनी द्रष्टिमां
सदाय परद्रव्यनो निमित्तकर्ता थवानुं जोर छे, एटले तीव्रमां तीव्र कर्मो बंधाय तेनो पण हुं निमित्तकर्ता
एवुं जोर तेना ऊंधा अभिप्रायमां पड्युं छे. एटले तेना परिणामनी कोई मर्यादा ज नहि रहे. केमके
कर्मनो निमित्तकर्ता ते ज थाय के जे विकारनो कर्ता थाय; विकारनो कर्ता ते ज थाय के जे स्वभावना
निर्मळकार्यने करतो न होय.
स्वभावसन्मुख थईने सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कार्यने करनार धर्मात्मा पोताने विकारनो पण
निमित्तकर्ता नथी मानतो; उलटुं, ते विकारने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे, केमके ज्ञानने विकारथी
जुदुं ने जुदुं राखतो थको ते विकारने ज्ञाननुं कार्य नहि पण ज्ञाननुं ज्ञेय ज बनावे छे; एटले धर्मीनुं
ज्ञान विकारने निमित्त नथी परंतु विकार धर्मीना ज्ञानमां ज्ञेयपणे निमित्त छे. जुओ, द्रष्टि पलटतां
केवो पलटो थई जाय छे!
अहा, धर्मीनो आत्मा ज्यां विकारने पण निमित्तपणे नथी करतो, तो पछी जड कर्मनो
निमित्तकर्ता ते केम होय?–अने परद्रव्यना कर्तापणानी तो वात ज क््यांथी होय?–आवुं भान अने
आवी द्रष्टि ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी धर्मनी शरूआत थाय नहीं.