: १० : आत्मधर्म: २०२
आ त्मा ने क््यां शो ध वो?
तोहीमें है तोही सुझत नांही
रे रुचिवंत पचारि कहे गुरु,
तु अपनों पद बुझत नांही.
खोजुं हिये निज चेतन लक्षन,
है निजमें निज गुझत नांही..
शुद्ध शुद्ध सदा अति उज्जल,
मायाके फंद अरुझत नांही.
तेरो सरूप न दुंदकी दोहीमें,
तोहीमें है तोही सुझत नांही
(बंधद्वार : ४७)
श्री गुरु संबोधन करीने कहे
छे के हे भव्य! तुं तारा स्वरूपने
पहिचानतो नथी; तारा अंतरमां
चैतन्य चिह्नने ढूंढ! ते तारामां ज
छे, ताराथी गुप्त नथी. तुं शुद्ध,
स्वाधीन अने अत्यंत निर्विकार
छो. तारी आत्मसत्तामां मायानो
प्रवेश नथी. तारुं स्वरूप भ्रमजाळ
के दुविधाथी रहित छे.–ते तारामां
ज छे पण तने सुझतुं नथी.
मोहीमें है मोही सुझत नीके
केई उदास रहें प्रभु कारन,
केई कहें उठि जांही कहींके.
केई प्रणाम करें गढि मूरति,
केई पहार चढें चढि छीकें.
केई कहें असमांनके उपरि,
केई कहे प्रभु हेठि जमींके.
मेरो धनी नहि दूर दिसन्तर,
मोहीमें है मोही सुझत नीके..
(बंधद्वार : ४७)
आत्माने जाणवा माटे अर्थात्
ईश्वरनी खोज करवा माटे कोई तो
बावाजी बनी गया छे, कोई बीजा
क्षेत्रमां यात्रा आदि करे छे, कोई
प्रतिमा बनावीने नमन–पूजन करे
छे. कोई छींका उपर बेसीने पहाड
चढे छे, कोई कहे छे के ईश्वर
आकाशमां छे. कोई कहे छे के
पाताळमां छे; परंतु अनुभवी ज्ञानी
कहे छे के मारो प्रभु! मारो आत्मा
क््यांय दूर देशमां नथी; ते मारामां
ज छे अने मने बराबर अनुभवमां
आवे छे.
आत्मा पोते पोतामां ज छे ने अंर्तद्रष्टिथी ते बराबर सुझे छे, ए
सिवाय बहारना कोई उपायथी ते सुझतो नथी.–आ संबंधी केवुं सुंदर अने
सरळ कथन उपरना बे कवितामां बनारसीदासजीए कर्युं छे!